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________________ ईश्वर क्या है? वहां रोग, (९) वैर, (१०) दुर्विपाक, (११)महामारी, (१२) अतिवृष्टि, (१३) अनावृष्टि, (१४) दुर्मिक्ष और (१५) राज-अत्याचार आदि नहीं रह सकते । तीर्थकर भगवानके आगमनके साथ ही देशमें सर्वत्र शांति, ऐश्वर्य और सद्भाव विराजमान हो जाता है। (१६) तीर्थङ्करों के आगे एक धर्मचक्र चलता है। (१७) इनके दृष्टिपातमात्रसे चारों दिशाओके प्राणी यह अनुभव करने लगते है कि मानों वे भगवानके सामने ही वैठे है। (१८) वृक्ष भी इनको नमन करते है। (१९) चारों ओर दिव्य दुंदुभिका नाद सुनाई देता है । (२०) इन्हें मार्गमें जाते हुवे कोई अन्तराय नहीं होता। (२१) इनके आसपास शीतल मन्द सुगन्ध पवन चलता है। (२२) पक्षी इनके आसपास कल्लोल करते है। (२३) देव इनके ऊपर पुष्पवर्षा करते है। (२४) सुगंधमय वर्षासे धरती भी सुशीतल रहती है। (२५),इनके केश था नख नहीं उगते (नहीं वहते) (२५) देव सदैव इनकी आज्ञामें उपस्थित रहते है । (२७) ऋतु भी सदैव अनुकूल रहती है। (२८) समवसरणमें क्रमशः तीन गढ़ रहते है । (२९) इनके पादस्पर्शसे सुवर्ण-कमल विकसित होते हैं। (३०) चामर, (३१) रत्नासन, (३२) तीन आतपत्र (छत्र), (३३) मणिमण्डित पताका और (३४) दिव्य अशोकवृक्ष इनके साथ ही रहते है। तीर्थकररूपी साक्षात् ईश्वरको लक्ष्य करके ही जैन पंच-परमेष्ठिनमस्कारमे अरिहंतको प्रथम स्थान देते है। " नमो अरिहंताणं "-अरिहंतको नमस्कार । घाति कर्मके क्षयसे मनुष्य जीवन्मुक्त होता है। सामान्य केवली
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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