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ईश्वर क्या है? होता है और आगमका आश्रय लेकर अन्य सर्वज्ञ होते है । इस प्रकार बीजाकर न्यायसे आगम और सर्वज्ञकी परम्परा चलती है। सर्वज्ञ-प्रणीत आगम प्रमाण है और आगम-प्रदर्शित सर्वज्ञत्व भी सत्य एवं सिद्ध है। हम आगम अथवा अनुमानसे जो ज्ञान प्राप्त करते है वह अस्पष्ट होता है, इसका कारण हमारा कर्ममल है। यह मल जब धुल जायगा तब सर्वज्ञत्व स्वतः प्रकट हुवे बिना न रहेगा। आवरणका क्षय होते ही सर्वज्ञ अर्हत् एकसाथ समस्त पदार्थ जान सकता है । उसे क्रमश:-धीमे धीमेजाननेकी आवश्यकता नहीं होती। उसे एक ही क्षणमें परस्परविरोधी समस्त पदार्थोंका ज्ञान हो जाता है। सर्वज्ञमें सदैव-प्रतिसमयसमस्त पदार्थोंका ज्ञान रहता है। सर्वज्ञ अर्हत् प्रक्षीणमोह होता है। उसे किसी भी वस्तुको अभिलाषा-किसी वस्तुका मोह-नहीं होता। वह पूर्णतः वीतराग होता है। वस्तु-स्वरूपके ज्ञानमें रागद्वेष उसे किसी प्रकारकी वाधा नहीं पहुंचा सकते।
जैनाचार्योका अभिप्राय यह है कि, आज हम असर्वज्ञ-छमस्थ हैं, इसीसे प्रकट होता है कि कोई ऐसा आवरण है जो सर्वज्ञताको रोकता है। आवरणके दूर होते ही सर्वज्ञतारूप सूर्य अवश्य प्रकट होगा। यदि सर्वज्ञताको स्वीकार न करे तो असर्वज्ञतासे भी इन्कार करना
पड़ता है।
' मीमांसक कहते है कि आगम अपौरुषेय है। सर्वज्ञ पुरुष आगमनिर्माण कर ही नहीं सकते, क्यो कि सर्वज्ञमें वाणी होना असम्भव है। इसके उत्तरमें जैनाचार्य कहते है कि, वाणी और सर्वज्ञता परस्परविरोधी नहीं है। सर्वज्ञ वक्ता और आगम-प्ररूपक हो सकता है।