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जिनवाणी आगम अपौरुपेय नहीं है। सर्वज्ञके अभावमें तो आगम भी अप्रमाण माना जायगा। आगममें सर्वज्ञ महापुरुषकी वाणी न हो तो वह (आगम) भी गुण-रहित ही माना जायगा। जैन लोग मीमांसकोंक आगमको नहीं मानते तथापि वे वेदवाक्य उद्धृत करके सिद्ध करते है कि वेद भी सर्वज्ञकी सत्ता स्वीकारता है
"विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतो मुखो विश्वतो वाहुरुत विश्वतःपात् स वेत्ति विश्वं न हि तस्य वेचा तमाहुरग्य पुरुषं महान्तम् । हिरण्यगर्भ प्रकृत्यसर्वज्ञ -" ___इस प्रकार सर्वज्ञकी सत्ता सभीको माननी पड़ती है। जैन सर्वज्ञको ईश्वर मानते हैं।
जैन दर्शन कहता है कि मुक्त जीव ही ईश्वर है। जैन दर्शनमें एक ही ईश्वर नहीं है। अनादि कालसे लेकर आज तक कितने ही पुरुषोंने मुक्ति प्राप्त की है और जैन दर्शनके अनुसार वे सब सर्वज्ञ तथा ईश्वर है। मुक्त जीवमात्र सर्वज्ञतादि कितने ही गुण-सामान्यके अधिकारी होते है। इस गुण-सामान्यकी दृष्टिसे जैन, कुछ अंशोमें एकेश्वरवादी है ऐसा भी प्रतीत होगा।
कर्मबन्ध दो प्रकारके हैं : (१) घाती और (२) अघाती । घाती कर्म आत्माके स्वाभाविक गुणका घात करते है। ये कर्म चार भागोंमें विभक्त है : (१) ज्ञानावरणीय, (२) दर्शनावरणीय, (३) मोहनीय और (४) अन्तराय।
ज्ञानावरणीय कर्मके उदयसे आत्माका विशुद्ध ज्ञान आवृत होता है। दर्शनावरणीय कर्मके उदयसे आत्माकी दर्शनशक्ति अवरुद्ध रहती,