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________________ जैन दर्शनका स्थान पर्यायोंके अन्दर भी जो अपना एकत्व अथवा अद्वितीयत्व स्थिर रक सकता है उसे तो जड़ पदार्थ कहनेकी अपेक्षा अध्यात्मपदार्थ कहना अधिक उचित है । भूयोदर्शन और तत्वविचार भी इसी सिद्धान्तका समर्थन करते है। भिन्न भिन्न भाववाले तीन गुणोके द्वारा विशिष्ट प्रकृति यदि सतत जगतविवर्तरूपी क्रिया कर रही हो तो उसे अध्यात्म पदार्थ ही मानना पड़ेगा । इसका इस प्रकार यह अर्थ हुवा कि, विभिन्न गुणत्रयको प्रकृतिके आत्मविकासमे प्रकारत्रय माना जाय । प्रकृतिको स्वभावतः एकान्त विभिन्न गुणत्रयका अचेतन संघर्षक्षेत्र हो माना जाय तो प्रकृति से कोई पदार्थ भी उत्पन्न नहीं हो सकता। प्रकृतिको अध्यात्म पदार्थ माने तो जगतविकासका स्पष्टीकरण हो जाता है। प्रकृतिके उत्पन्न किये हुवे तत्वोमें पहिला तत्त्व महत्तत्त्व अथवा बुद्धितत्त्व है। यह पत्थरके समान जड़ नहीं है, यह तो अध्यात्म पदार्थ है। इसके बाद इन्द्रिय, पञ्च तन्मात्रा और धीरे धीरे महाभूतोंकी उत्पत्ति मानी गई है। यदि प्रकृतिको पूर्णत जड माने तो उससे विश्वोत्पत्ति होना एक अर्थहीन व्यापार हो जाय। महत्तत्त्व अथवा अहंकार अध्यात्म पदार्थ है, और कपिल मुनिका मत है कि, कार्य तथा कारण एक ही स्वभावके पदार्थ होते है । अत एव प्रकृतिमातासे उत्पन्न तत्वोंकी भांति स्वयं प्रकृति भी अध्यात्म पदार्थ ही है यह मानना युक्तिसंगत है। यदि प्रकृतिको पूर्णत: जड़ माने तो जड़ स्वभाववाली पंच तन्मात्रासे पूर्व, उपर्युक्त दो अध्यात्म पदार्थीका जन्म किस प्रकार हुवा होगा, यह-समझमें नहीं आता। निष्कर्ष यह कि प्रकृतिको अध्यात्म पदार्थ
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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