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जिनवाणी
माने बिना काम ही नहीं चल सकता । प्रकृति बीजरूपी चित पढ़ार्थ है । इसके पूर्ण विकासके लिये सर्वप्रथम लक्ष्यज्ञान तथा आत्मज्ञानकी आवश्यकता होती है और उसमेंसे वृद्धि तथा अहंकारका जन्म होता है । इसके पश्चात् प्रकृति अपनेमेंसे आत्मविकासके कारणस्वरूप, आवश्यकतानुसार धीरे धीरे इन्द्रिय, तन्मात्रा और महाभूतादि जड़ तत्त्व उत्पन्न करती है । इस प्रकार प्रकृतिको अध्यात्म पदार्थ और उसकी सन्ततिको उसके ( प्रकृतिके) आत्मविकासका साधनरूप माननेसे सांख्यकथित जगत-विवर्त-क्रिया भली भांति समझमें आ जाती है ।
प्रकृतितत्त्वको अध्यात्म पदार्थ माने बिना और काई चारा ही नहीं । प्राचीन कालमें किसीने ऐसी कल्पना नहीं की थी यह भी नहीं कहा जा सकता । कठोपनिषदकी तीसरी बल्लीके निम्मलिखित १०, ११ इलोकमें प्रकृतिको अन्यात्मस्वभावरूपमें प्रकट किया है । इससे यह भी प्रतीत होता है कि सांख्य दर्शनको वेदान्त दर्शनमें परिणत करनेका प्रयत्न किया गया है।
इन्द्रियेभ्यः परार्थाः अर्थभ्यश्च परं मनः । मनसश्च परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् परः ॥ १०॥ . महतः परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुषः परः । पुरुषान परं किंचित् सा काष्टा सा परा गतिः ॥ ११॥ इन्द्रियोंसे अर्थ (इन्द्रियार्थ ) श्रेष्ठ है, अर्थसे मन श्रेष्ठ है, मनसे वृद्धि, बुद्धि से महदात्मा, महदात्मासे अव्यक्त और अव्यक्तसे पुरुष श्रेष्ठ है । पुरुषको अपेक्षा अन्य कुछ अधिक श्रेष्ठ नहीं है । पुरुष ही सीमा और श्रेष्ठ गति है ।
जैन दर्शनका मन्तव्य इससे सर्वथा भिन्न है । जैन दर्शन अजीव