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________________ - जिनवाणी ' सांख्य दर्शनका अध्ययन करलेवालेको सबसे पहिले यह जिज्ञासाहोती है कि, " प्रकृतिका स्वरूप क्या है। यह जड़स्वरूप है या चैतन्यस्वरूप " प्रकृतिको सर्वांगत जड़ तो कह ही नहीं सकते: साधारणतः हम जिसे जड कहते है वह तो प्रकृतिकी विकृति-क्रियाका अन्तिम परिणाम होता है। तब प्रकृतिको क्या समझा जाय ? सांख्य दर्शनने प्रकृतिका अस्पष्ट लक्षण किया है कि, पृथक् पृथक भाववाले गुणोंकी साम्यावस्थाका नाम प्रकृति है। परन्तु इन्द्रिय-ग्राह्य उपर्युक्त जड़ पढार्थ विभिन्नभावी गुणत्रयकी साम्यावस्थारूप तो है नहीं, यह तो प्रत्यक्ष ही है। 'बहु के भीतर जो 'एक' है. विविध संघर्षणपरायण गुणजड़वादी है ऐसा समझना नहीं चाहिए। लेखक इस उल्लेखसे अजीव तत्त्वको ही सट करते हैं। यहा लेखकका कहना निम्न प्रकार है साख्यके अजीव तत्त्वमें केवल एक प्रकृति ही है, जो आध्यात्मिक पदार्थ है। उममेसे बुद्धितत्त्व प्रकट होता है तथा पांच इद्रिय और तन्मात्राए भी उत्पन्न होती हैं। अत साख्य दर्शनकी प्रकृति वस्तुत जड नहीं है, किन्नु चैतन्य रूप है। जैन दर्शनके राजीव तत्वमें भिन्न भिन्न पाच द्रव्य हैं, वे सभी निर्जीक हैं। अत. जैन दर्शनके अजीवतत्त्व जड़ हैं न कि चैतन्यरूप । लेखक महोदय भी उपमहारम इस आशयको ही सष्ट करते हैं। जैसा कि “उपर्युक्त कथनानुसार सांख्यकथित अजीवतत्त्व याने प्रकृतिका अध्यात्मपदार्थक रूपमें परिणमन किया जा सकता है, परन्तु जैन दर्शनके मजीवतत्वोंको किसी प्रकार भी जीवस्वभावकी कोटिमें नहीं रक्खा जा सकता"। (देखिए पृष्ठ २५) "(नैयायिकके) महाभूत और अदृष्ट ये दोनों जड़ है।" (पृष्ठ ३३) (म श्रीदर्शनविजयजी)
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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