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जिनवाणी
चीजरूपसे छुपे रहते हैं । केवल एक कणाद मत ही दिशा, काल और परमाणुकी स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करता है। वैशेषिक दर्शनके समान जैन दर्शन भी इन सबकी अनादिता और अनन्तताको स्वीकार करता है।
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भारतीय दर्शनके सुयुक्तिवाद रूप वृक्षके ये सब सुन्दर फलफूल
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है । न्याय दर्शनमें युक्तिप्रयोगने अच्छा स्थान प्राप्त किया है। तर्कविद्याकी जटिल नियमावली इस न्याय दर्शनको अंगभूत है । गौतम दर्शन में हेतुज्ञानादिका अत्युत्तम रूपसे स्पष्टीकरण किया गया है, परन्तु जैन दर्शन तो जगतके दार्शनिक तत्वोंका एक समृद्ध भण्डार ही है, यह कहना कुछ अत्युक्ति न होगी। जैन दर्शनमें तर्कादि तत्त्वोंकी सुन्दर, शोभायमान आलोचना मिलती है। इस विषयमें जैन दर्शन और न्याय दर्शन में बहुत कुछ साम्य है । परन्तु इससे यदि कोई यह कहने लगे कि न्याय दर्शनका अध्ययन करनेके पश्चात् जैन दर्शनका अध्ययन करनेकी क्या आवश्यकता है, तो वह अवश्य धोखा खाएगा। इन दोनों दर्शनोंमें, समानता होते हुवे भी कुछेक भेद है। जैन दर्शनमें स्याद्वाद अथवा सप्तभंगी नय नामक सुविख्यात युक्तिवादका जो अवतरण पाया जाता है वह गौतम दर्शनमें भी नहीं है । यह युक्तिवाद जैनोंका अपना और उनके गौरवको समुज्ज्वला करनेवाला है।
इस विवेचनसे यह बात समझी जा सकती है कि, भारतीय दर्शनों में जैन दर्शनको कितना उच्च स्थान प्राप्त है। कुछ लोगोने जैन दर्शनको बौद्ध दर्शनके समान ही मान लिया था । लासेन और वेबरने यह भूल की है। ईस्वी सनकी सातवीं शताब्दीमें ह्युएनसंग भी वही मान बैठा । कोबो और वुलरने इस भ्रमको दूर किया । इसने जैन दर्शनको स्वतन्त्र