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________________ जैन वर्शनका स्थान है कि सत् पदार्थमात्र विश्वप्रधानमें वीजरूपसे विद्यमान रहता है। इस लिये कपिल और पतञ्जलिने आकाश, काल और परमाणुओंके विषयमें तात्त्विक निर्णय करनेकी ओर विशेष ध्यान नहीं दिया । वे केवल यह कहकर छुटकारा पा जाते हैं कि ये सब प्रकृतिको विकृति है। परन्तु यह बात इतनी सरल नहीं है। साधारण मनुष्यकी दृष्टिमें तो दिशा, काल और परमाणु भी अनाद-और स्वतन्त्र सत्पदार्थ है । जर्मन दार्शनिक काण्ट कहता है कि, दिया और काल तो मनुष्यके मनमें संस्कारमात्र हैं, परन्तु यह सिद्धान्त अन्त तक न ठहर सका। बहुतसे स्थानोंमें स्वयं काण्टको ही कहना पड़ा है कि, दिशा और कालकी भी अपनी स्वतन्त्र सत्ता है। इसके अतिरिक्त डेमोक्रिट्ससे लेकर आज तकके सभी वैज्ञानिकोंने परमाणुका अनादित्य और अनन्तत्व स्वीकार किया है। केवल कपिल और पतञ्जलि-ही दिशा, काल और अनादित्व और अनन्तत्वको स्वीकार न कर सके । प्रकृति और लक्षण मिन्न-भिन्न होते हुवे भी दिशा, काल और परमाणु आदि एक अद्वितीय विश्व प्रधानके विकार किस प्रकार माने जा सकते है, यह बात समझम नहीं आनी । तथापि सांख्य और योग दर्शनने यह मत अङ्गीकार किया है। वैशेषिक दर्शनने परमाणु, दिशा और कालका अनादिच तथा अनन्तत्व स्वीकार किया है। प्रत्यक्षवादी चावांकको तो दिशा कालादिके विषयमें विचार करनेकी भी आवश्यकता,प्रतीत नहीं हुई। दिशा और काल चाहे हमें सत्य ही क्यों न प्रतीत होते हों, परन्तु शून्यवादी बौद्ध उन्हें अवस्तु स्वरूप ही बतलाते है। वेदान्तमत भी इससे मिलता जुलता ही है। सांख्य और योग मतानुसार दिश और काल -
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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