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जैन दर्शनका स्थान ही घोषित नहीं किया बल्कि यह भी सिद्ध किया कि यह बुद्धके पहिले भी था। मैं यहां पुरातत्त्व संबन्धी विषयकी चर्चा करना नहीं चाहता। मैंने पहिले ही कह दिया है कि जिन्हें चौद्ध और जैन धर्मका प्रवर्तक माना जाता है, उनसे भी वहुत पहिले ये धर्म , विद्यमान थे। वौद्ध धर्मको न तो बुद्धने उत्पन्न किया है और न जैन धर्मका आविष्कार महावीर स्वामीने ही सर्वप्रथम किया है। जिस विरोधसे उपनिषदोका प्रादुर्भाव हुवा है उसी विरोधसे-वेदशासन और कर्मकाण्डके विरुद्ध - जैन और बौद्ध प्रकट हुवे है। ह्युएनसंगने जैन धर्मको बौद्वधर्मान्तर्गत क्यों समझ लिया यह बात इससे भली भांति प्रकट है। वह जब भारतवर्ष में आया तब बौद्ध धर्मका प्रबल प्रताप था । जैनोंके समान ही बौद्ध भी अहिंसा और त्यागका उपदेश देते थे। वैदिक क्रियाकाण्डके विरुद्ध बौद्धांने जो बलवा किया था उसमें अहिंसा और न्याग ये दोनों शस्त्र बचाव और आक्रमण दोनों ही कार्योंमें विना संकोच प्रयुक्त किये जाते थे। अवैदिक सम्प्रदाय भी अहिंसा और त्यांगके पक्षपाती थे। वैदिक यज्ञ हिंसासे लिस थे और इस लोक तथा परलोकके क्षणिक सुखके लिये ही किये जाते थे।
जैन सम्प्रदायने वेदशासनका विरोध किया और अहिंसा तथा वैराग्य पर खूब जोर दिया। इससे साधारण दृष्टि से देखनेवालोंको बौद्ध तथा जैन मत एक जैसा दिखलाई दिया। एक विदेशी मुसाफिर उपयुक्त कथनानुसार बाह्य रूप देखकर बौद्ध तथा जैन मतको एक मान ले तो इसमें आश्चर्यकी कोई बात नहीं है । इसके अतरिक्त दोनों सम्प्रदायोंमें आचार - विचार भी कुछ समान थे। पस्तु दोनों मत तात्विक दृष्टि से पूर्णतः