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जैन दर्शनका स्थान कारण जैन भी बौद्ध दर्शनकी ओर आकृष्ट हुवे थे। " मै हूं" यह अनुभव तो सभीको होता है । " मैं वास्तवमें हूं, मैं छायामात्र ही नहीं हूं " यह तो सभी अन्तःकरणसे मानते है। ___ आत्मा अनादि अनन्त है, यह वात उपनिपदकी प्रत्येक पंक्तिमें उञ्चल अक्षरोमें अंकित हैं। वेदान्त मी इसी बातका प्रचार करता है। आत्मा है, आत्मा सत्य है, इसे किसीने उत्पन्न नहीं किया, यह अनन्त है; आत्मा जन्म-जन्मान्तरको प्राप्त होता है, सुखदुःख भोगता है, यह वात प्रतीत होती है, परन्तु वास्तवमे वह एक असीम सत्ता है, ज्ञान और आनन्दके सम्बधसे असीम और अनन्त है - वेदान्त दर्शनका यह मूल प्रतिपाद्य विषय है। जैन दर्शनने आत्माकी असीमता और अनन्तताको स्वीकार करके वेदान्त दर्शनके अविरोधी दर्शनके रूपमें ख्याति प्राप्त की है।
चौद्ध दर्शनके अनात्मवादको खबर लेने और आत्माकी अनन्त सत्ताकी घोषणा करनेमे जैन और वेदान्त एकमत हो जाते है; परन्तु ये दोनों अभिन्न नहीं है, दोनोंमे पार्थक्य है; वेदान्त जीवात्माकी सत्ता स्वीकार करके ही नहीं रुक जाता; दर्शन-संसारमे वह एक कदम
और आगे बढता है और खुल्लमखुल्ला कहता है कि जीवात्मा और परमात्माम कोई भेद नहीं है । वेदान्त मतके अनुसार यह चिदचिन्मय विश्व, एक अद्वितीय सत्ताका विकासमात्र है। "मैं वह हूं", विश्वका उपादान वही है, मै उससे भिन्न अथवा स्वतन्त्र सत्ता नहीं हूं, यह अनन्त बाह्य जगत्-जो मुझसे स्वतन्त्र दीखता है - उससे पृथक् अथवा स्वतन्त्र नहीं है, एक अद्वितीय सत्ताका ही यह सर्व दिलास है,