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जिनवाणी आप और मै, चित् अचित् ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो उस *सत्यस्य सत्यम्' से पृथक् हो ।
वेदान्तका यह 'एकमेवाद्वितीयम्' वाद अत्यन्त गंभीर और बहुत प्रवल है। परन्तु साधरण भनुष्य इतनी गहराई तक पहुंच सकता है या नहीं, यह एक प्रश्न है । साधारण मनुष्य इतना तो अनुभव कर सकता है कि जीवात्मा नामकी कोई एक सत्ता है, परन्तु एक मनुष्यसे दूसरेमें कोई भेद ही नहीं है, मन एक जड पदार्थ है, अन्य दृष्टिगोचर पदार्थोंमें कोई भेद नहीं है, इन बातों पर विचार करनेमें उसकी बुद्धि कुण्ठित हो जाती है। कल्पना कीजिये कि कोई बुद्धिमान पुरुष यह सिद्धान्त निश्चित करता है कि, मै अन्य सबसे पृथक् ई, स्वतन्त्र हूं, मेरा अन्य जड़चेतन पदार्थोके साथ कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है और इस चराचरविश्वमें असंख्य स्वतन्त्र पदार्थ भरे पड़े है, तो हम उसके इस सिद्धान्तको सर्वथा युक्तिरहित किस प्रकार कह सकते हैं ?
और सच पूछो तो यह सिद्धान्त बिल्कुल रद्दी मान लेने योग्य है भी नहीं। संसारका अधिकांश भाग तो यही अनुभव करता है और यही सिद्धान्त मानता है। यही कारण है कि वेदान्त मत सबके स्वीकार करने योग्य नहीं रहा। ____ कपिलमुनिप्रणीत प्रसिद्ध सांख्य दर्शनके मतवाद पर भी विचार करना आवश्यक है। वेदान्तकी भांति सांख्य भी आत्माको अनादि
और अनन्त मानता है। परन्तु वह आत्माके बहुत्वसे इन्कार नहीं करता। वेदान्त मत और सांख्यमें एक और भी मतभेद है। सांख्य मतानुसार स्यान्मा अथवा पुरुपके साथ प्रकृति नामक एक, अचेतन होते हुवे भी