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जिनवाणी
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प्रतीत होते हुवे भी जैन और बौद्ध दर्शनमें बहुत भेद है । बौद्ध दर्शनको नींवमें जो कमजोरी है वह जैन दर्शनमें नहीं है ।
परीक्षा करने पर स्पष्ट माऴ्म हो जायगा कि बौद्ध मतकी सुन्दर अट्टालिकाकी नीतिकी नीव बिल्कुल कच्ची है । वेदशासनको अमान्य करनेका उपदेश भी ठीक है, अहिंसा और त्यागका आग्रह भी ठीक है, कर्नबन्धन तोडनेकी बात भी अर्थयुक्त है, परन्तु जब हम बौद्ध दर्गनसे पूछते है कि-'हम कौन है ? तुम जिसे परमपढ कहकर साध्य तो मानते हो वह क्या है ?' तब वह जो जवाब देता है वह सुनकर -हम ढंग रह जाते है | वह कहता है - "हम यानी शून्य - अर्थात् कुछ नहीं । " तब क्या हमें हमेशा अन्धकारमें ही टक्कर मारनी होगी ? और अन्तमें भी क्या सबकों असाररूप महाशून्यमें ही मिल जाना होगा ? इस भयंकर महानिर्वाण अर्थात् अनन्तकाव्यापी महानिस्तव्यता के लिये मनुष्य-प्राणी कठोर संयमादि क्यों स्वीकार करे ? महाशून्यके लिये “जीवनके सामान्य सुखको क्यों छोड़ा जाय ? यह जीवन निसार है तो होने दो, इसके पश्चात जो कुछ मिलना है यदि वह इससे भी अधिक नि'सार हो तब तो कोई उसकी तनिक भी इच्छा क्यों करे ? सारांग यह कि बौद्ध दर्शनके इस अनात्मवादसे साधारण मनुष्यको सन्तोष प्राप्त नहीं हो सकता । बौद्ध धर्म एक बार अपनी सत्ता पूर्णत स्थापित कर चुका है और जनता पर प्रभाव डाल चुका है, परन्तु यह तो कोई भूलकर भी न कहेगा कि इसका कारण यह अनात्मवाद था । बौद्धौमें एक " मध्यम मार्ग " है । वुद्धदेव प्रदर्शित इस मार्गमें जो कठोरता रहित तपश्चर्याका एक प्रकारका आकर्षण था उसके