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जैन दर्शनमें धर्म और अधर्म तत्त्व
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आकाशसे पृथक् माना गया है। यदि एक ही द्रव्यमें भिन्न भिन्न कार्योंका आरोप किया जा सकता है, तो न्यायदर्शन संमत अनेकास्मवाद किस प्रकार युक्तियुक्त ठहरेगा ? इसके अतिरिक्त सांख्यदर्शन प्रकृतिमें सत्त्व, रजस् और तमस् नामक भिन्न भिन्न तीन गुणोंका आरोप करता है, वह भी किस प्रकार उचित माना जायगा ? इन तीन गुणोंमेंसे किसी भी एक गुणको भिन्न भिन्न तोन प्रकारोंसे काम करनेवाला मान लिया जाता तो भी काम चल जाता । मूलतः ही भिन्न कार्योका कारण एक हो तो सांख्यसंमत पुरुषबहुत्ववाद सिद्ध नहीं हो सकता। बौद्ध दर्शन, रूपकंव, वेदनास्कंध, संज्ञास्कंध, संस्कारस्कंध और विज्ञानस्कंध नामक पांच भिन्न भिन्न स्कन्धोंका उल्लेख करता है। अन्तिम स्कन्धके विना शेष स्कन्धोंका होना असम्भव होते हुवे भी बौद्ध पांचों स्कन्ध मानते है । अर्थात् एक पदार्थ दूसरेके आश्रित हो तो भी, यहि दोनोंके कार्योंमें मौलिक भेद हो तो, दोनों पदार्थोका पृथक् अस्तित्व मानना पड़ता है। ___ धर्म और अधर्म अमूर्त द्रव्य है, अतः वे अन्य पदार्थोंकी गति
और स्थितिमें किस प्रकार सहायक हो सकते है ? -- इस प्रकारको शंका करनेका कारण नहीं है । द्रव्य अमूर्त होने पर भी कार्य कर सकता है। आकाश अमूर्त होने पर भी अन्य पदाथीको अवकाश देता है। सांख्यदर्शन-संमत प्रधान भी अमूर्त है, तथापि पुरुपके लिये उसका जगत-प्रसवका कार्य माना गया है। वौद्ध दर्शनका विज्ञान अमूर्त होने पर भी नाम रूपादिकी उत्पत्तिका कारण है। वैशपिक संमत अपूर्व भी क्या है ? वह भी अमूर्त है, तथापि वह जीवके सुखदुःखादिका