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जिनवाणी नियामक है। अत एव धर्म और अधर्म अमूर्त होते हुवे भी कार्य करते है, इसमें शंकाको स्थान नहीं हैं।
धर्म और अधर्म शब्द साधारणतः नैतिक अर्थमें व्यवहत होते है, तथापि जैन दर्शनमें वे दोनों द्रव्य है, दोनों ही अजीव तत्त्व है । कोई कोई धर्म और अधर्मके इन दोनों अर्थों में पारस्परिक संबन्ध तलाश करनेका यत्न करते है, उसीकी आलोचना हम उपसंहारमें करेंगे । धर्म गतिका कारण है और अधर्म स्थितिका कारण है। नैतिक अर्थमें धर्मके माने पुण्यकर्म और अधर्मके माने पापकर्म होता है। किसी किसीके मतानुसार धर्मका " गतिकारण" यह तात्त्विक अर्थ ही मूल और प्राचीन है, पिछेसे उसीमेंसे धर्मका नैतिक अर्थ निकला है। वे कहते हैं कि जीव द्रव्य स्वभावतः ही उड्ढगई (ऊर्ध्वगति ) है। अर्थात् वह जिस अंशमें विशुद्ध स्वभावमें स्थित होगा उस अंशमें उसकी ऊर्च गति होगी और वह उतना ही लोकानकी ओर आगे बढ़ेगा। धर्म यह गतिकारण है; अतः सुखमय ऊर्ध्वलोकमें जानेमें जीवको जो सहायक हो उसे धर्म कह सकते है। इस ओर फिर पापस्पर्शरहित पुण्यकर्म करनेसे ही जीव ऊलोकमें जा सकता है। अत एव जो "धर्म" शब्द पहिले "जीवकी ऊर्ध्व गतिमें सहायक" इस अर्थको प्रकट करता था वह शब्द समय बीतने पर पुण्यकर्मवाचक हो गया। इसी प्रकार अधर्म मूलतः 'जीवकी स्थितिमें सहायक' इस अर्थका द्योतक होनेसे बादमें उन पापकर्मोंका वाचक हो गया कि जिससे जीव संसारमें बंधा रहता है । इस मतमें हमारी श्रद्धा नहीं है। धर्म और अधर्मके तात्विक और नैतिक अर्थोंमें ऊपर जो सम्बन्ध स्थापित करनेका प्रयत्न