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जिनवाणी धर्म और अधर्म दोनोको पृथक् पृथक् न मानकर एक ही द्रव्य मानें तो क्या दोप है? इसके उत्तरमें तत्त्वार्थ-राजवार्तिककारका कथन है कि, धर्म और अधर्मक कार्य भिन्न हैं, अत एव वे दोनों मिन्न द्रव्य हैं। एक ही पदार्थमें एक ही समयमें रूप, रस और अन्य व्यापार देखे, जाते है, परन्तु क्या इससे हम रूप रसादिको एक ही व्यापार कह सकते है ?
आकाश तत्त्वको गति और स्थितिका कारण मानकर धर्म और अधर्मके अस्तित्वसे इन्कार नहीं किया जाता । आकाशका लक्षण तो अवकाश अर्थात् रथान देना ही है । जिस प्रकार नगरमें घर आदि होते है उसी प्रकार आकाशमें धर्म, अधर्म और अन्य द्रव्य रहे हुए हैं। यदि स्थिति और गति कराना आकाशका गुण होता तो अनन्त महाशून्य अलोकमें भी इन गुणोंका अभाव न होता । अलोकाकाशमें गति
और स्थिति संभव होती तो लोकाकाश और अनंत अलोकाकाशमें कोई अन्तर न रहता। व्यवस्थित लोक और अनन्त अलोकके भेदसे ही मालूम होता है कि आकाशमें गति-स्थितिके निमित्त कारणत्वका आरोप नहीं किया जा सकता और गति-स्थितिके कारण स्वरूप धर्म और अधर्मका अस्तित्व मानना आवश्यक है। यद्यपि यह सच है कि, अवकाशको देनेवाले आकागके बिना धर्म और अधर्मका कोई भी कार्य नहीं हो सकता, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि आकाश और धर्म-अधर्ममें कुछ भेद ही नहीं है। वैशेषिक दर्शनमें दिग, काल और आत्माको भिन्न भिन्न पदार्थ माना है। आकाशके विना इनमेंसे किसीका भी कार्य नहीं हो सकता, इतना होने पर भी इन सबका अस्तित्व