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जैन दर्शनमें धर्म और अधर्म तत्त्व
२५९ (Immaterial) है । पहिले कहा जा चुका है कि अधर्म अजीव अर्थात् अनात्मद्रव्य है।
धर्म, काल, पुद्गल और जीवके समान अधर्म, लोकाकाशमें वर्तमान है । अनन्त आकाशमें उसका अस्तित्व नहीं है। अधर्म वर्तमान (अस्ति) और प्रदेशविशिष्ट (काय) है इस लिए उसकी गणना पंच अस्तिकायमें की गई है । एक अविभाज्य पुद्गल जितना स्थान रोकता है उसे 'प्रदेश' कहते है । अधर्म लोकाकाशकी सीमामें रहता होनेसे उसके प्रदेश अनन्त नहीं है । वे निर्दिष्ट सीमामें रहते होनेसे उनका अंत है । जैन अधर्म, धर्म और जीवके प्रदेशोंको 'असंख्य ' अर्थात् अगण्य कहते है ।
इस प्रकार अधर्म ' असंख्येय-प्रदेश' होने पर भी एक ही है –केवल एक ही व्यापक पदार्थ है । वह विश्वव्यापी (लोकावगाढ) और विस्तृत (" पृथुल") है। धर्मके समान अधर्मके प्रदेश भी परस्पर संयुक्त है; अतएव वह एक व्यापक पूर्ण पदार्थ कहलाता है। इस विषयमें अधर्म, कालतत्वसे भिन्न है, क्योंकि कालाणु परस्पर संयुक्त नहीं है। ____ धर्म और अधर्म, दोनोंको मूलतः एक ही द्रव्य कहा जा सकता है या नहीं ? दोनों लोकाकाश व्यापी है अत एव दोनोंका "देश" एक है। दोनोंका 'संस्थान' अर्थात् परिमाण एक ही है। दोनों एक 'काल' मे वर्तमान है । दार्शनिक एक ही दर्शन अर्थात् प्रमाणकी सहायतासे दोनोंके अस्तित्वका अनुमान करते है। धर्म और अधर्म " अवगाहन" से एक हैं अर्थात् दोनों परस्पर घनिष्टतासे संयुक्त है। दोनों तत्व " द्रव्य" हैं, अमूर्त हैं और ज्ञेय है । अत एव