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जिनवाणी
सहकारी) अर्थात् स्थितिशील पदार्थका स्थितिसहायक कहा है । जो स्थितिशील पदार्थकी स्थितिको सहायता देता है उसे विशुद्ध दर्शनवाले अरिहंतोंने अधर्म कहा है। पशुओं की स्थितियों का जिस प्रकार पृथ्वी साधारण आश्रय है उसी प्रकार अधर्म जीव और पुद्गलोंके स्थितिव्यापारका साधारण आश्रय है (तत्त्वार्थसार, अध्याय ३-३५३६) गमनगील पशुओंको पृथ्वी रोक नहीं देती, परन्तु पृथ्वी न हो तो उनकी स्थिति भी सम्भव नहीं, उसी प्रकार यद्यपि किसी भी गतिगील चस्तुको अधर्म रोक नहीं देता तथापि अधर्मके बिना गतिशील वस्तुओं की स्थिति भी सम्भव नहीं । ऐसे समय जैन लेखक अधर्मके साथ छायाकी भी तुलना करते है । वे कहते है – “जिस प्रकार छाया तापसे झुलसते हुवे प्राणियों की स्थितिका और पृथ्वी अश्वोंकी स्थितिका कारण है उसी प्रकार अधर्म भी पुद्गलादि द्रव्योंकी स्थितिका कारण है । "
अधर्म ' अकर्ता' अर्थात् निष्क्रिय तत्त्व है । यह वस्तुओंकी स्थितिका हेतु या कारण होने पर भी कदापि क्रियाकारी (Dynamic or produchve) कारण नहीं है । यही कारण है कि अधर्मको स्थितिका " वहिरंग हेतु " अथवा " उदासीन हेतु " कहा जाता है। वह " नित्य " और " अमूर्त " है; उसमें स्पर्श, रस और गंधादि गुण नहीं है । इन सब बातों में धर्म, काल और आकाशसे अधर्मकी समानता है । इसका विशिष्ट गुण है और यह वस्तुओंके स्थितिपर्यायका आधार है, इस लिये यह सद्द्रव्य है । अधर्म, द्रव्यतत्त्वरूपमें जीवके समान है; जीवके समान वह भी अनाद्यनंत और अपौद्गलिक