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________________ जैन दर्शनमें धर्म और अधर्म तत्त्व २५७ अनन्त संग्रामके ऊपर विश्वशृङ्खला अवलम्बित है, ऐसा मानना युक्तिविरुद्ध है। ग्रीक दार्शनिक आविष्कृत 'राग' ( Principle of love) और 'द्वेष' (Principle of hate ) के सिद्धान्तके साथ धर्म और अधर्मकी तुलना नहीं हो सकती। हमें प्रतीत होता है कि, धर्मको वहिर्मुखी गतिका कारण (Piinciple " guaranteeing motion within hmits") और अधर्मको अन्तर्मुखी गतिका कारण या मध्याकर्षणकारण (कोष्टक Principle of Gravitation) कहना ठीक नहीं है। परमाणुकाय संरक्षणमें जिन दो परस्पर विरोधी (Positive and negative) वैधुतिक शक्तिका व्यापार (Electro magnetic influences ) देखा जाता है, उनके समान परस्पर विरोधी किन्हीं दो तत्त्वोंके साथ धर्म अधर्मकी तुलना नहीं हो सकती। धर्म और अधर्म सर्वथा निष्क्रिय द्रव्य है । जिस प्रकार "केन्द्राभिमुखी" और " केन्द्रवहिर्गामी" गति (Centripetal and Centrifugal forces ) से वे नहीं मिलते उसी प्रकार किसी प्रकारके भी क्रियाकारित्व ( dynamic energisang) का आरोप उनमें नहीं किया जा सकता। जैन दर्शनमें अधर्मका अर्थ पाप या नीति विरुद्ध कर्म नहीं है। यह एक सत् अजीव तत्त्व है; वस्तुओंकी स्थितिशीलताका एक कारण है । वह जीव और जड वस्तुओंका स्थितिकारण माना जाता है इससे यह न समझ लेना चाहिए कि अधर्म गतिशील पदार्थीको रोक देता है । अधर्म स्थितिका कारक सहभावी कारण है । द्रव्यसंग्रहकारने इसे “ ठाणजुदाण ठाणसहचारी" (स्थानयुतानां स्थान
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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