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जिनवाणी
तिर्यव आयुः कर्म में कारणभूत है । अल्पारम्भ और अल्प परिग्रहसे जीव मनुष्यायु वांधता है। मृदुताले भी जीव मनुप्यआयुः वांधता है । सर्व प्रकार के आयु कर्मके आश्रवमें अशील और अत्रत मुख्य है । सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा कौर बालतप देव - आयुः-कर्मके आश्ननमें कारणनूत है। सम्यकवी अर्थात् सम्यग्दर्शी भी देवताकी आयु : उपार्जित करता है ।
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नामकर्म में भी शुभ और अशुभ, ये दो भेद है; यह बात ऊपर कही जा चुकी है । मनुध्वगति-कर्म, देवगति-कर्म, पंचेन्द्रिय जातिकर्म, शरीरकर्म, अंगोपांग क, समचतुरुसंस्थानकर्म, वज्रऋषभनाराचसंहननकर्म, गुभ स्पर्गकर्म, शुभ रसकर्म, शुभ गंधकर्म, शुभ वर्णकर्म, देव - ' गत्यानुपूर्वी कर्म, मनुष्यगत्यानुपूर्वी कर्म, अगुरुलघु कर्म, पराघात कर्म, उच्छास कर्म, आताप कर्म, उद्योत कर्म, शुभविहायोगति कर्म, त्रस - कर्म, बादरफर्म, पर्याप्तिकर्म, प्रत्येकशरीर-कर्न, स्थिर कर्म, शुभ कर्म, सुभग कर्म, सुस्वर कर्म, आदेय कर्म, यशः कीर्ति-कर्म, निर्माण-कर्म, और तीर्थंकरकर्म, ये ३७ प्रकारके कर्म शुभ नामकर्म है, यह भी ऊपर बतलाया जा चुका है।
योगवक्रता और विसंवादन, अशुभ नामकर्मके आश्रवकारण है। मन, वचन और कायाके कुटिल व्यवहारका नाम योगवक्रता है । वितंडा, अश्रद्वा, ईर्ष्या, निन्दावाद, आत्मप्रशंसा, असूया ये सब विसं - वाद अन्तर्गत है । योगवत्रता और विसंवादसे विपरीत आचरण शुभ नामकर्मका आश्रव कराता है । दूसरे शब्दोंमें कहा जाय तो, मन, -वचन और कायाका सरल व्यवहार, कलह-त्याग, सन्यग्दर्शन, विनय