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जैनोंका कर्मवाद
२३५ आश्रव होता है । भूतानुकंपा, व्रतानुकंपा, दान, सरागसंयम, संयसासंयम, अकामनिर्जरा, बालतप, योग, क्षान्ति और गौच, ये दस सातावेदनीय कर्मके आश्रय-कारण है; जो सुखपूर्व वेदा जा सके ऐसे कर्मका इससे आश्रव होता है। सर्व प्राणियोंके प्रति करुणा होनेका नाम भूतानुकंपा है। व्रतधारी साधुओंके प्रति अनुकंपा होना व्रतानुकंपा है। रागमिश्रित संयमका नाम सरागसंयम है। व्रतका पालन करते हुवे जो कुछ कषायोंका नियमन होता है वह संयमासंयम है। अविचलित रूपसे कर्मके निर्दिष्ट फलोंको भोग लेनेका नाम अकामनिर्जरा है। सम्यगजानके साथ जिसका जरा भी सम्बन्ध न हो वह बालतप कहलाता है। चित्तवृत्तिके 'निरोधको योग कहते हैं । अपराधीको क्षमा करना क्षान्ति है। पवित्रताशुचिताका नाम शौच है। अवर्णवाद दर्शनमोहनीयका आश्रव-कारण है। सर्वज्ञ भगवानकी, विशुद्ध आगमकी, संघकी, सत्य धर्मकी, और देवकी निंदाको अवर्णवाद कहते है। इस अवर्णवादसे जीवमें दर्शनमोहनीय कर्म प्रविष्ट होता है। ___ कषाय और नो-कपायकी प्रकृति तथा भेद ऊपर कहे जा चुके है । जैनाचार्य कहते है कि, कषाय और नो-कषायके उदयसे जीवमें जो तीत्र विभाव उत्पन्न होता है उससे जीव चारित्रमोहनीय कर्म बांधता है । वहुत अधिक आरंभ और वहुत अधिक परिग्रहके कारण जीव नरककी आयु वांधता है- नरकायु कर्मका आश्रव होता है। सांसारिक व्यापारोंमें लिप्त रहनेको आरम्भ और विषयतृष्णाके कारण विषयोंके भोगको परिग्रह कहते है। इन विषयोमें तल्लीन होकर जो जीव अहिंसादिको भूल जाता है वह नरकायुः वांधता है। माया अर्थात् ठगवाजी