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जैनोंका कर्मवाद और गुणानुवाद आडिसे जीवमें शुभ कर्मका आप्रव होता है। दर्शनविशुद्धि, विनयसंपन्नता, अतिचार रहित शीलवत, ज्ञानोपयोग, संवेग, यथाशक्ति त्याग, तप, साधुभक्ति, यावृत्य, अरिहंतकी भक्ति, आचार्यकी भक्ति, वहुश्रुतकी भक्ति, प्रवचनकी भक्ति, आवश्यक अपरिहाणि, मार्गप्रभावना और प्रवचनवात्सल्य; इन १६ प्रकारकी शुभ भावनाओसे जीवमें तीर्थकर नामकर्मका आश्रय होता है।
(१) विशुद्ध सम्यग्दर्शनका नाम नतिशुद्धि है । इसके आठ भेद है--नि शंकित-विशुद्ध दर्शनमें कुछ गंका न करना। निकांनितधर्मके अतिरिक्त किसी वातकी आकांक्षा न करना । निर्विचिकित्सित-धर्मक्रियामें कुछ भी धृणा न रखना। अमूढदृष्टि-शुद्ध दर्गतके विश्यमें लेशमात्र भी कुसंस्कार न रखना। उपबृंहग-सन्यदृष्टि कभी दूरोरका दोष नहीं देखता। स्थिरीकरण-सत्यम अविचलित रहना, यह सम्बग्दृष्टिका एक अंग है । वात्सल्य-सम्यग्दृष्टिवाला सदैन मुक्तिमार्गके पथिकोकी और लेह, श्रद्वासे देखता है। प्रभावना-मोक्षमार्गका प्रवार यह सम्यग्दर्शनका एक लक्षण है। (२) मुक्तिके साधन तथा मुक्तिके मार्ग पर चलनेवाले साधुओंकी भक्तिको विनयसंपन्नता कहते है । (३) पांच महाव्रतका परिपालन । (४) आलस्य रहित होकर सम्यग्ज्ञान प्राप्त करनेके लिये प्रयत्न करनेका नाम ज्ञानोपयोग है । (५) संसारमें दुःख देखना संवेग कहलाता है। (६) शक्तिके अनुसार त्याग करना यथाशक्ति त्याग है। (७) शक्त्यनुसार तप करना यथाशक्ति तप है। (८) साधुओंकी सेवा, रक्षा और अभयदान आदिको साधुभक्ति कहते । (९) धार्मिकोंकी सेवा वैयावृत्य कहलाती है । (१०) सर्वज्ञ अरिहंत