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________________ जैनोंका कर्मवाद २२१ सप्तम संघातकर्म - इसके कारण शरीरका छोटेसे छोटा भाग समान संघातकर्म भी पांच भी परस्पर सम्बद्ध रहता है। शरीरके प्रकारका है – - (७९) औदारिक संघातकर्म । (८०) वैक्रियक संघातकर्म । (८१) आहारक संघातकर्म । | (८२) तैजस संघातकर्म (८३ ) कार्मण संघातकर्म । अष्टम संस्थानकर्म — इससे शरीरको आकृतिकी योजना होती. है । यह कर्म छः प्रकारका होता है (८४) समचतुरस्त्रसंस्थान * — इस कर्मसे शरीर सुडौल - सुगठित होता है । * समचतुरस्र संस्थान नामकर्म -- ( श्वेताम्बर मतानुसार ) शरीरके आकारमें संस्थान नामकर्म कारण है। शरीरके समग्र अवयवोंके लक्षणयुक्त सुडौल होनेमें यह कर्म कारण है । न्यग्रोधपरिमंडल संस्थान - इस कर्मसे वटवृक्षके समान नाभिके ऊपरका भाग लक्षणोंसे युक्त सुडौल होता है और नाभिके नीचेका भाग लक्षण- हीन होता है । सादि संस्थान - इस कर्मसे शाल्मली वृक्षके समान नाभिसे नीचेका भाग सुडौल और ऊपरका भाग लक्षण रहित होता है । कुब्ज संस्थान -- इस कर्मसे मस्तक, गर्दन, हाथ, पर सुडौल होते हैं; अन्य अवयव ऐसे नहीं होते । धामन संस्थान---इस कर्मसे मस्तकादि उपरोक्त अवयव लक्षण - हीन और शेष अवयव सुडौल होते हैं ।
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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