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जैनोंका कर्मवाद
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सप्तम संघातकर्म - इसके कारण शरीरका छोटेसे छोटा भाग समान संघातकर्म भी पांच
भी परस्पर सम्बद्ध रहता है। शरीरके प्रकारका है –
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(७९) औदारिक संघातकर्म । (८०) वैक्रियक संघातकर्म ।
(८१) आहारक संघातकर्म ।
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(८२) तैजस संघातकर्म (८३ ) कार्मण संघातकर्म ।
अष्टम संस्थानकर्म — इससे शरीरको आकृतिकी योजना होती. है । यह कर्म छः प्रकारका होता है
(८४) समचतुरस्त्रसंस्थान * — इस कर्मसे शरीर सुडौल - सुगठित होता है ।
* समचतुरस्र संस्थान नामकर्म -- ( श्वेताम्बर मतानुसार ) शरीरके आकारमें संस्थान नामकर्म कारण है। शरीरके समग्र अवयवोंके लक्षणयुक्त सुडौल होनेमें यह कर्म कारण है ।
न्यग्रोधपरिमंडल संस्थान - इस कर्मसे वटवृक्षके समान नाभिके ऊपरका भाग लक्षणोंसे युक्त सुडौल होता है और नाभिके नीचेका भाग लक्षण- हीन होता है ।
सादि संस्थान - इस कर्मसे शाल्मली वृक्षके समान नाभिसे नीचेका भाग सुडौल और ऊपरका भाग लक्षण रहित होता है ।
कुब्ज संस्थान -- इस कर्मसे मस्तक, गर्दन, हाथ, पर सुडौल होते हैं; अन्य अवयव ऐसे नहीं होते ।
धामन संस्थान---इस कर्मसे मस्तकादि उपरोक्त अवयव लक्षण - हीन और शेष अवयव सुडौल होते हैं ।