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जैनांका कर्मवाद
तीसरा 'शरीरकर्म-इससे जीवका शरीर निर्दिष्ट होता है। शरीरके पांच प्रकार है, इस लिये गरीरकर्म भी पांच प्रकारको होता है। (६५) औदारिक शरीर-इसके उदयसे जीवको मनुष्य और
तिर्यंचका स्थूल शरीर मिलता है। (६६) वैक्रियक शरीर-जिसे छोटा या वडा किया जा
सके उसे वैक्रियक गरीर कहते हैं। इस कर्मके उदयसे जीव देव तथा नारकीका वैक्रियक शरीर
प्राप्त करता है। (६७) आहारक शरीर-छठे गुणस्थानवाले मुनिको यदि
तत्त्वार्थ सम्बन्धी कोई शंका उत्पन्न हो तो शंकाका समाधान करनेके लिये वह, केवलज्ञानी या श्रुतकेवलीके पास भेजनेके लिये, इस कर्मके उदयसे, मस्तकमेंसे एक हाथ प्रमाणवाला शरीर उत्पन्न कर सकता है। शंका समाधान होने पर यह शरीर पुनः
स्थूल शरीरमें समा जाता है। (६८) तैजस शरीर-इस कर्मके उदयसे औदारिक और
१ आहारक-शरीर-नामकर्म -श्वेताम्वर सिद्धान्तानुसार चौदह पूर्वधर मुनिको तत्त्वार्य सवन्धी कोई शका उत्पन्न हो या तीर्थकरके दर्शनकी इच्छा हो तो वह शकासमाधानके लिये या दर्शनके लिये, महाविदेह क्षेत्र में स्थित तीर्थकरके पास मेजनेके लिये इस कर्मके उदयसे, एक हाथ प्रमाण शरीर बनाता है। कार्य पूर्ण होने पर वह कर्पूरके समान विलीन हो जाता है।
२ तेजस-शरीर-नामकर्म-इस कर्मके उदयसे आहार पाचन हो और तेजोलेश्या छोड़नेमें सहायक हो ऐसा शरीर होता है।