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________________ जैनोंका कर्मवाद (२) कर्म पुद्गल स्वरूप है, जीव-पदार्थका विरोधी है। जीवके रागद्वेषादि वि-भावके कारण जीवमें कर्मका आश्रव होता है । अथवा जीव कर्म बांधता है, ऐसा भी कह सकते हैं। रागद्वेषादि जीवके वि-भाव, द्रव्य-कर्मास्रवके निमित्तकारण हैं। जीवके वि-भाव भावकर्मके नामसे पहिचाने जाने पर भी द्रव्यकर्मके अर्थात् पुद्गल स्वभाववाले कर्मके उपादान कारण नहीं है। क्यों कि पुद्गल ही पुद्गलका उपादान कारण हो सकता है। पुद्गल-विरोधी जीव-विभाव, पुद्गलका उपादान कारण किस प्रकार हो सकता है । जीवके विभाव, अर्थात् भावकर्मका उदय जीवमें द्रव्यकर्मका आश्रव कराता है, इसी लिये जीवके विभाव द्रव्य-कर्माश्रवमें निमित्त कारण माने जाते है, और द्रव्यकर्म भी भावकर्ममें निमित्तरूप है। यह जैन सिद्धान्त है। जीवमें कर्मका आस्रव होनेसे जीव 'वन्ध में पड़ जाता है । प्रकृति-स्थित्यनुभाग-प्रदेशास्तद्विषयः । (तत्त्वार्थसूत्र) प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश मेदसे बन्ध भी चार प्रकारका है। कर्मानुसार ही वन्धका विचार किया जाता है। कर्मकी
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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