SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाषानुवाद २०९ I स्थापित किये पछत्तर लाखके (खर्च) से । मौर्यकालमें उच्छेदको प्राप्त चौसट्ठी ( चौसठ अध्यायवाले ) अंगसप्तिकका चौथा भाग फिर तैयार कराया । इस क्षेमराजने, वृद्धिराजने, भिक्षुराजने, धर्मराजने कल्याण देखते, सुनते और अनुभव करते हुए । (१७) ०००००००००००० है गुण विशेष कुशल, समस्त पंथोंका आदर करनेवाला, समस्त ( प्रकारके) मंदिरोंकी मरम्मत कराने वाला, अस्खलित रथ और सैन्यवाले चक्र ( राज्य ) का धुरी (नेता), गुप्त - (रक्षित) चक्रवाला, प्रवृत्त चक्रवाला राजर्षिवंशविनिःसृत राजा खारवेले । ' १. लेखके आदि अन्तमें एक एक मगल चिह्न चनाया गया है। पहिला वद्धमगल है और सरेके नामका अभी पता नहीं चला । ૧૪
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy