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जैनोंका कर्मवाद प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशकी दृष्टिसे कर्मबन्धकी चार प्रकारसे विवेचना की जा सकती है।
कर्मकी प्रकृति कर्म दो प्रकारके है : घाती और अघाती। जो कर्म जीवके अनन्त ज्ञानादि स्वाभाविक गुणांका बात करता है वह घाती कर्म कहलाता है। यह घाती कर्म भी ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय मेदसे चार प्रकारका है। वेदनीय, आयु, नाम, और, गोत्र ये चार अघाती कर्मके नामसे पहिचाने जाते है। कर्म आठ प्रकारके होने पर भी उसके अवान्तर भेद १४८ है।
(१) ज्ञानावरणीय कर्म जीवके पांच प्रकारके ज्ञानको ढक लेता है। इसके पांच भेद है
(१) मतिज्ञानावरणीय मतिज्ञानको ढके रहता है। (२) श्रुत-ज्ञानावरणीय श्रुतज्ञान अर्थात् आगम ज्ञानको
आवृत करता है। (३) अवधि-ज्ञानावरणीय अवधि ज्ञानको ढके रहता है। (४) मनःपर्यव-ज्ञानावरणीय अन्योंके मनके भाव पहि
चाननेकी ज्ञानशक्तिको ढके रहता है। (५) केवल-ज्ञानावरणीय केवलज्ञान-सर्वज्ञताको आवृत
करता है। (२) दर्शनावरणीय कर्म-जीवके दर्शन (निर्विशेष सत्तामात्र महासामान्यके अनुभव)को ढकता है। इसके ९ भेद हैं
(६) चक्षुर्दर्शनावरग आंखके देखनेकी शक्तिका अवरोध