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महामेघवाहन महाराजा खारवेल भोज, पिटिनिक, आंध्र, पुलिन्द आदि सव जातियोके राज्योमें अव देवप्रियके धर्मानुशासनका पालन होता है । जिन जिन देशोंमें देवप्रियके दूत गये है उन उन देशोंकी प्रजाने देवप्रियका धर्म सुना है और उसका पालन भी किया है । इस प्रकार सर्वत्र धर्मकी विजय हुई है। इससे देवप्रियको बहुत आनन्द हुवा है । परन्तु वह इस आनन्दको तुच्छ समझता है । वह पारलौकिक कल्याणको अधिक श्रेयस्कर मानता है। इसी लिये यह अनुशासनलिपि तैयार की गई है। मेरे पुत्रों और पौत्रोंको अब नवीन राज्यों पर विजय प्राप्त करनेकी उत्सुकता छोड़ देनी चाहिये । धर्मविजय सिवाय अन्य किसी प्रकारकी विजयकी इन्हे वृत्ति न होनी चाहिये । अलशस्त्रोंकी सहायतासे वास्तविक विजय प्राप्त नहीं हो सकती। धर्मविजय ही इस लोक और परलोकमें मंगलकारी है। उन्हे धर्मविजयमें ही श्रद्धा होनी चाहिये, यही उभय लोकमें हितकारी है।"
ऐतिहासिक दृष्टिसे यह शिलालेख बहुत मूल्यवान है। इसमें भारतवर्ष और उसके आसपासके देशोका तत्कालीन वर्णन मिलता है। ग्रीस राजाके जो नाम इसमें है वे सब सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक है अशोकके काल-निर्णयमें यह उपयोगी हो सकता है । मौर्य साम्राज्यका कितना विस्तार था, कितने खंडिया राजा थे और कितने मित्रराज्य थे, इस बातका भी इसमें उल्लेख है।
इस शिलालेखसे यह मालूम होता है कि, महाराजा अशोक द्वारा विजित होनेसे पूर्व कलिंगदेश, एक स्वतन्त्र, समृद्ध और वस्तीसे अच्छी आबादीवाला देश था । ब्राह्मण, श्रमण (साधु ) और अन्य धर्मपरायग