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________________ २७० जिनवाणी करने लगे। एक दिन राजर्षि ध्यानमें बैठे थे । इतनेमें एक सिंह उधर आ पहुंचा । राजर्षिको ध्यानमें बैठा देखकर उसने एक छल्लांग मारी और उनका शरीर चीर डाला । प्राणान्त कष्ट सहने पर भी मुनिराज तनिक भी चंचल न हुवे । मरकर उन्होने दशम प्राणत स्वर्गमें इन्द्रपद प्राप्त किया। इन्द्रकी ऋद्धि-समृद्धि मिलने पर भी वे मोगविलासके रंगसे अछूते रहे । वे नित्यप्रति जिनपूजा करते और देवताओंको वीतरागधर्मके महत्त्वका उपदेश देते थे । इस प्रकार उन्होंने २० सागरोपमकी आयु व्यतीत की। राजर्षि सुवर्णवाहुके प्राण लेनेवाला सिंह अन्य कोई नहीं, पर नरकसे लौटा हुवा दुराचारी कमठका ही जीव था। सौधर्म स्वर्गके इन्द्रने कुबेरको कहा: "दशवें स्वर्गका देव हाल ही में मानवलोकमें अवतीर्ण होनेवाला है। केवल छ: मास अवशेष हैं। यह पुरुष २३ वां तीर्थङ्कर होनेवाला है। वे भरतक्षेत्रस्थित वाराणसी नगरीमें अवतीर्ण होंगे । इक्ष्वाकुवंशी महाराजा अश्वसेन और उनकी धर्मपत्नी पतिव्रता वामादेवीको इन महापुरुषके पिता तथा भाता होनेका सौभाग्य प्राप्त होगा।" तदनन्तर धनकुवेरने वाराणसीमें नित्य प्रति तीन करोड़ रत्नोंकी वर्षा करनी प्रारम्भ की, कल्पवृक्षके पुष्प वरसाने लगा और दिव्य गन्धमय निर्मल जल छिड़कने लगा । आकाशमें देवदुन्दुमि बजने लगी एवं वहीं स्थित देव स्तुति-गान करने लगे। वाराणसीमें ऐश्वर्यकी बाढसी आगई । जन समूहके आनन्दकी सीमा न रही।
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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