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भगवान् पार्श्वनाथ
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और सायं महलकी खुली छत पर खड़ा होकर सूर्यविमानमें स्थित जिन - बिम्बको अर्घ्य अर्पण किया करेगा । इस निश्चयके अनुसार वह रोज प्रातः सायं खुली छत पर खड़ा होकर, सूर्यके सम्मुख देखकर अर्ध्य देता और जिनबिम्बको उद्देश्य करके दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता ।
अपने नगरमें भी उसने एक सूर्य- विमान तैयार कराया और उसमें जिन - प्रतिमा की स्थापना की ।
प्रजा धीमे धीमे महाराजाकी पूजापद्धतिका अनुकरण करने लगी, सुबह शाम सूर्यको अर्ध्य देने लगी । इसी प्रकार कितने ही वर्ष बीत गए। प्रजा यह बात भूल गई कि सूर्य एक विमान है और उसमें एक जिनप्रतिमा है । केवल सूर्यकी पूजा शेष रह गई। आज भी यह अवशेष सूर्योपसनाके नामसे प्रसिद्ध है ।
' धीमे धीमे सुवर्णवाहुने वार्द्धक्यका आगमन देखा और संसारेअपंचों से निवृत्त होकर दीक्षा ग्रहण की।
दीक्षा लेनेके पश्चात् सुवर्णबाहुने कठोर तपश्चर्या की । उसके प्रभावसे उन्हें कई अपूर्व सिद्धियां प्राप्त हुई । इस राजर्षिके आसपास बनमें कहीं भी दुःख और क्लेशका नाममात्र भी न रहा । स्वभावसे ही हिंसक ऐसे पशु - प्राणी भी आपसके वैर भूल गए । सिंह और शक सम्बन्धियोंके समान एक साथ रहने लगे । लता- वृक्षों पर भी राजर्षि के पुण्यका प्रभाव पड़ा । वन-वृक्ष फूलों-फलोंसे लद गए । सरोवरोंमें निर्मल जल और कमल लहराने लगे ।
ऐसे शांत एकांत सुखमय अरण्य में राजर्षि सुवर्णबाहु आत्मध्यान