SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६८ जिनवाणी उत्पन्न होंगे? उसे यह खयाल न आएगा कि, यह वेश्या जब जीवित थी तव कितनी रूपवती होगी ? इसने अपने जीवनकालमें कितने युवकोंको कटाक्षवाणसे घायल किया होगा ? इसी स्मशानमे एक कुत्ता आ पहुंचता है । वह सोचता है कि, ये लोग किस लिये इस जड़ शरीरको जला देते है ? इसे ऐसे ही छोड दें तो फिर हमारे कैसें गुलछर्रे उड़े ! इसी स्मशानके पाससे होकर एक साधुपुरुष निकलने है । वे इस कलेवरको देखकर सोचते हैं : " मनुष्य देह मिलने पर भी इस जीवने इसका कैसा दुरुपयोग किया ? देहसे इसने तपश्चर्या की होती तो इसका कितना कल्याण होता?" सारांश यह कि, एक ही अचेतन देहको देखनेवाले तीन व्यक्ति भिन्न भिन्न प्रकारके विचार करते हैं; एक मृतदेह तीन मनुप्योंके चित्तमें पृथक पृथक् रंग भरती है । वाद्य वस्तुके दर्शनका कुछ प्रभाव ही नहीं पड़ता ऐसा न मानना चाहिये। जिनप्रतिमाका ध्यान करनेसे, उसकी पूजा करनेसे, इनके गुणोंका स्मरण करनेसे हमारे चित्तमें विशुद्विके अंशकी वृद्धि होती है। यही विशुद्धि हमें धीमे धीमे स्वर्गादिका सुख और मुक्ति भी दिलाती है। । सुवर्णबाहुकी शंका जाती रही। विपुलमति मुनिवरने इस राजाको और भी बहुतसी बातें बतलाई और यह भी बतलाया कि तीन लोकमें कितने कितने चैत्य हैं। ' " सूर्य विमानमें भी एक स्वाभाविक, सुन्दर, अपूर्व जिनमंदिर है।" उस दिनसे सुवर्णवाहुने निश्चय किया कि, वह नित्य प्रातः
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy