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उसे इन तत्वोंके विवेचनको यथाशक्ति रोचक और बुद्धिग्राह्य बनाना पडता है । निरूपणकी रोचकताका आधार उसकी शैली है। और तत्वोंकी बुद्धिग्राह्यता, अन्य दर्शनोंके तत्वोंके साथकी तथा पश्चिमी विचारप्रवाहके साथकी तुलना पर अवलंबित है। जैनेतर जनतामें भी जैन दर्शन सबन्धी विशिष्ट जिज्ञासा जागृत करनेके उद्देश्यसे लिखे गये इन लेखोंकी निरूपण शैलीमें हमें रोचकता और बुद्धिग्राह्यता, दोनों ही बातें दिखलाई देती है । क्यों कि, इन लेखोंकी शैली ऐसी प्रतिपादनात्मक एवं युक्तियुक्त है कि उसमें जैन दर्शनको विशिष्ट स्थापनाका उद्देश्य होते हुवे भी उसमें न तो उग्रता ही है और न ही कटुता या किसीका आक्षेपपूर्ण खंडन । इन लेखोंमें जिन जिन विषयोंकी चर्चा की है, उनके संबन्धमें अन्य भारतीय दर्शनोंके साथ जैन दर्शनकी तार्किक तुलना की गई है। इतना ही नहीं, अनेक स्थानोंमें उस उस विषयके वारेमें पश्चिमी विचारकोंमें भी क्या क्या पक्ष-प्रतिपक्ष हैं यह भी प्रकट किया गया है। अत एव इन लेखोंको पढनेवाले मध्यम वर्गको जैन तत्वोंको वुद्धिग्राह्य वनानेमें बहुत ही सरलता होगी।
अभ्यास एवं समझशक्तिकी दृष्टि से तथा रुचिपुष्टिकी दृष्टिसे मेरे मतानुसार इन लेखोंमें प्रथम स्थान " भारतीय दर्शनों में जैन दर्शनका स्थान" शीर्षक लेख को मिलना चाहिये। * द्वितीय स्थान " जैन दृष्टिमें
* उम समय अन्य लेख तैयार न होनेसे, पण्डितजीको केवल चार लेस ही भेजे गए थे। कर्मवाद, भगवान पार्श्वनाथ तथा महामेघवाहन खारवेल नामक लेख वादन सम्मिलित किये गए हैं।
गुजराती अनुवादक श्री सुशील।