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मेरे इस कथनको पढ़नेवाले सज्जनोंको ध्यान रखना चाहिये कि, मैं इन लेखोंके विषयमें अपना विचार संक्षेपमें तथा प्रतिपादक सरणीसे ही प्रकट कर रहा हूं। इसके प्रत्येक मुद्देके वारेमें विस्तार पूर्वक तथा समालोचक दृष्टि से लिखनेके लिये भी स्थान है, परन्तु इस समय मैं इस दृष्टि से नहीं लिख रहा हूं। प्रथम यह देखना चाहिये कि ये लेख किस प्रकारके जिज्ञासुओंके लिये लिखे गये है। 'जिनवाणी' मासिक पत्र बंगला भाषा में निकलता था। उसमें प्रकाशित ये लेख प्रधानतः बंगाली पाठकोके लिये ही लिखे गये है। बंगाली पाठक यानि जन्मसे ही गुरुवचनको 'तहत्ति' 'तहत्ति' (तयेति) करनेवाला एक श्रद्धालु जैन नहीं; बंगाली पाठकगण यानि छोटे बड़े सभी विषयोंमें विवेचक और समालोचक दृष्टि से, गहराईमें पहुंचकर सत्यकी खोज करनेवाले बिल्कुल आध्यात्मिक गण, ऐसा भी नहीं; परन्तु यह पाठकगण साधारणत. दर्शनमात्रमें रुचि रखेनवाला, प्रत्येक दर्शनके विषयमें न्यूनाधिक जानकारी रखनेवाला, तर्क-शैली और तुलनात्मक पद्धतिका मूल्य समझनेवाला एवं पंथ या सम्प्रदायकी चार दीवारीसे रहित विशाल ज्ञानाकाशमें अपने चित्तको स्वच्छन्द रीतिसे उड़ने देनेकी इच्छा रखनेवाला होता है । यह बात याद रखनी चाहिये कि, इस प्रकारके वंगाली पाठक-वर्गमें जैनोंकी अपेक्षा जैनेतर समाज ही मुख्य और अधिक है। उनमें भी प्रधानत. कोलेजके विद्यार्थियों और पण्डित प्रोफेसरोंका ही आधिक्य होता है । जब कोई, जन्मसे ही जैनेतर और बुद्धिप्रधान वर्गके लिये, जैन दर्शनके साधारण और विशिष्ट तत्त्वोंक विषयमें सफलता पूर्वक कुछ लिखना चाहता है तो यह स्वाभाविक बात है कि