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जिनवाणी
अपने ज्येष्ठ सहोदरकी तपश्चर्याका सब हाल सुनकर मरुभूति सोचने लगा : “ सचमुच मेरे बड़े भैयाका हृदय अब पश्चात्ताप - वारिसे शुद्ध हो गया है।" राजाने बहुत समझाया कि चाहे जितना धोने पर भी कोयला सफेद नहीं होता । दुराचारी मनुष्य गायद थोड़े समय के लिये सदाचारी हो जाय, तो फिर वह और भी भयंकर हो जाता है । इस लिये अब तुम्हे उसके साथ किसी प्रकारका संबंध न रखना यही उचित है। पर मरुभूतिके हृदय में वन्वभावका रुचिर उमड रहा था । भ्रातृवात्सल्यने उसके दिलके ऊपर पूर्णतः अधिकार जमा रक्खा था ।
वह न रह सका, और जाकर कमठके चरणो पर गिर पड़ा, बोला : “ भाई, क्षमा करो, महाराजाने मेरी बात विना सुने ही आपको निर्वासित कर दिया । आपकी यह कठोर तपश्चर्या देखकर मेरा हृदय फटा जाता है । अब आप घर चलिये । "
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उस समय कमठ दोनों हाथोंमें दो भारी पत्थर लिये खड़ा हुवा तपश्चर्या करता था । छोटे भाईके विनयी मधुर शब्दोंने उसके अन्तःकरणमें बैठे हुवे क्रोधरूपी सर्पको छेड़ दिया। उसने आगा सोचा न पीछा; हाथका पत्थर भाईके शिर पर दे मारा। मरुभूति वहीँका ' वहीं
मर गया ।
कमठके इस निर्दय व्यवहारको देखकर आसपास के तपस्वियों में खलबली मच गई । उन्होंने कमठको आश्रमसे निकाल बाहर किया । कमठ एक भीलवस्तीमें जाकर रहने और चोरी लूटमार आदि उपद्रव करने लगा ।
एक अवधिज्ञानी मुनिराजने महाराजा भरविंदको मरुभूतिके