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________________ भगवान् पार्श्वनाथ १५७ वहां वसुंधराकी हुई । कनठके पापका घड़ा भी परिपूर्ण हो गया । महाराजा अरविंद शत्रु पर विजय प्राप्त करके जब पोतनपुर वापस आए तो बहुतसे मनुष्योंसे इस अन्याचारकी कहानी सुनी ।उनका रोम रोम क्रोधसे जलने लगा। उन्होंने मन्त्री मरुभूतिसे पूछा : " तुम स्वयं भले कुछ न कहो, परन्तु मै कमठको कड़ेसे कड़ा दंड देना चाहता हूँ । अपने राज्यमें मै यह अन्याय सहन नहीं कर सकता । तुम्ही बतलाओ, इसकी क्या सजा दी जाय ? " 1 मरुभूति भी आखिर मनुष्य था । कमठके अत्याचारसे उसके हृदयमें ज्वाला धधक रहीं थी । तथापि वह उदारता और क्षमाके शीतल जलसे इस ज्वालाको शान्त करनेके लिये अहर्निश अपने चित्तके साथ युद्ध खेलता था । उसने कहा : " इस समय तो उसे एक बार क्षमा कर दाजिये । " मरुभूतिके स्वभावकी मधुरताको देखकर महाराजा विस्मित हो गये । वे कहने लगे. " बस, अब तो मैं स्वयं ही सब कुछ देख लूंगा, तुम ज़वान नही चला सकते। अब तुम खुशीसे अपने महलमें जा सकते हो। " महाराजाने कमठका मुख काला करवाया और उसे गधे पर बैठाकर सारे शहर में घुमानेके पश्चात् फिर कभी स्वदेश न लौटनेकी आज्ञा फरमा दी । अपमानित कमठ फिर तो तपस्वी वन गया । धर्महीन, वैराग्यविहीन कमठ भूताचल नामक पर्वत पर तपस्वियोंके आश्रम में जाकर कठोर तपश्चर्या करने लगा ।
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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