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जिनवाणी
क्रमशः पूर्व तथा पश्चिमके समुद्रमें समा जाती है । ३२ कर्मभूमियोंमें से हरेकमें विजया (वैताढ्य ) पर्वत और दो दा उपनदियां होती है।
पञ्चम और षष्ठ क्षेत्रमें दो दो महानदियां और एक एक पर्वत है | ये दो क्षेत्र मध्यम और जघन्य भोगभूमि माने जाते है । कर्मभूमि और भोगभूमिका वर्णन अब आगे करेगे ।
भरतक्षेत्र और ऐरावतक्षेत्र ये दो ऐसे है कि जहां कालचक्रके अनुसार जीवकी आयु, शरीर और शक्ति आदिमें परिवर्तन होता रहता है । जिस समय जीवके शरीर आदि उत्कृष्ट स्थितिका उपभोग करते हों उस कालका नाम उत्सर्पिणी काल है, और जिस समय क्षीण
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स्थितिको भोगते हो उस कालका नाम अवसर्पिणी काल है । इन दो प्रकारके कालोंके ६-६ आरे है - (१) सुखमा सुखमा, (२) सुखमा, (३) सुखमा-दुःखमा, (४) दुःखमा-सुखमा, (५) दुःखमा, (६) दुःखमा - दुःखमा । इस समय अवसर्पिणी कालका पांचवां आरा 'दुःखमा' चल रहा है। छठा आरा अत्यन्त दुःखपूर्ण है जो आगे आनेवाला है । उसके बाद पुनः उत्सर्पिणी काल प्रारम्भ होगा। कालके प्रभावसे जीवके आयु, शरीर और शक्ति आदिमें न्यूनाधिकता होती है । इसी प्रकार भरत और ऐरावतकी भूमि में भी कुछ परिवर्तन होते है ।
जम्बूद्वीपके चारों ओर लवणोद महासमुद्र है । इस समुद्रके एक किनारेसे उसके सामने वाले दूसरे किनारे तकका फासला (पाट) पांच लाख योजन है । लवणसमुद्रको धातकी खंड चारों ओरसे घेरे हुवे है। वह भी द्वीप है। इसका विस्तार लवणोदसे दोगुना और जंबूद्वीपसे ४ गुना है। समुद्र सहित इसका व्यास १३ लाख योजन है । जंबूद्वीप