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जिनवाणी
केवलज्ञानी पुरुष परलोक देख सकते है । जैन और आस्तिक भी यह बात मानते हैं ।
नास्तिक यहां कहेगे कि, परलोक हो तो उसका कुछ कारण भी तो होना चाहिये । वह कारण क्या है ? परलोकका कारण अदृष्टको मानें तो ' अनवस्था ' दोष आ जायगा । यदि यह कहो कि रागद्वेपादिके कारण परलोक है तो फिर आप निष्कर्म अवस्थाके विषयमें क्या कहेगे ? क्यों कि संसारीमात्र रागद्वेषवश होते है। यदि कहो कि हिंसादि क्रियाके लिये परलोक-व्यवस्था माननी हो चाहिये तो यह भी उचित नहीं है, क्यों कि कभी कभी क्रिया - फलका व्यभिचार देखा जाता है। हिंसादि पापकर्म करनेवाले धनधान्यके बड़े वैभवको भोगते देखे जाते है । दूसरी ओर सत्कर्म करनेवाले सज्जन पुरुषको अति दीन दशा भोगनी पड़ती है । इस प्रकार कर्मफल- व्यभिचार देखते हुवे यह नहीं कहा जा सकता कि कर्मफल है और अवश्य ही है । कर्मफल ही नहीं है तो फिर परलोक माननेकी क्या आवश्यकता रही?
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जैन दार्शनिकोंने इन तीनों आपत्तियोंका उत्तर दिया है : वे नास्तिकोंसे कहते हैं कि, तुम्हारी बात अमुक अंग़में, अमुक अपेक्षासे ठीक है । परन्तु इससे परलोक या अदृष्टके सिद्धान्तमें कोई दोष नहीं आता । जैन मानते हैं कि, जीव अनादि कालसे कर्मसंयुक्त है । इसमें आप अनवस्था दोष बतलावे तो वह भूल है । रागद्वेषादिके कारण भवभ्रमण करना पडता है और इसी लिये निष्कर्मावस्था असंभव हो जाय, ऐसा आप कहें तो क्षणभरके लिये आपकी यह बात मान ली जा सकती है, परन्तु फिर भी परलोक तो आपको मानना ही पड़ेगा ।