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શરછ
जीव जैनाचार्य आत्माके स्वदेह परिमाणचको भली भांति सिद्ध करते है। __ न्यायमतका इस प्रकार खंडन करके जैन दार्शनिक युक्तिपूर्वक सिद्ध करते हैं कि आत्मा व्यापक नहीं बल्कि देहपरिमाण ही है। उनका अनुमान-प्रयोग भी यहां देखने लायक है । वे कहते है कि, आत्मा व्यापक नहीं है, क्यों कि वह चेतन है। व्यापक पदार्थ चेतन नहीं हो सकता । उदाहरण स्वरूप आकाश ।, आत्मा चेतन है इस लिये वह अध्यापक है । आत्मा अव्यापक है इसका अर्थ यही है कि वह देहपरिमाण है; क्यों कि शरीरमें उसका अस्तित्व देखा जाता है।
जैन सिद्धान्तानुसार जीव "कम्मसंजुतो" अथवा " पौद्गलिकादृष्टवान् " है। पहिले इस वातकी ओर संकेत किया जा चुका है। जो नास्तिक हैं-जो कर्मफल नहीं मानते, और परलोग भी नहीं मानते, वे भी जीवको अदृष्टवान कहकर अपने ही मतका खंडन करते है। कर्मके साथ फलका अच्छेद्य संवन्ध न माना जाय तो ‘कृतप्रणाश' और 'अकृताभ्यागम' दोष आते है। यह बात भी पहिले कही जा चुकी है। सारांश यह कि परलोक माने बिना काम नहीं चल सकता। यदि कहा जाय कि परलोक प्रत्यक्ष दिखलाई नहीं देता, तो फिर उसे क्यों माना जाय ? इसका समाधान यह है कि यह कहना ठीक नहीं है कि परलोक प्रत्यक्ष नहीं दीखता इस लिये उसे न मानना चाहिये । हम पितामह, प्रपितामह आदि अपने पूर्वजोंको नहीं देख सकते है, किन्तु इससे क्या यह कह सकते है कि वे थे ही नहीं ? कोई नास्तिक यह कहे कि किसीने भी कभी परलोक नहीं देखा तो उसकी यह बात मानने योग्य नहीं है। क्यों कि वह कोई सर्वज्ञ नहीं है।