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जीव
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वास्तविक बात यह है कि, जब तक जीवकी मुक्ति नहीं होती तब तक वह रागद्वेषके वशीभूत रहेगा और कर्म तथा कर्मफलके चक्र पर चढ़ेगा । पापी दिखते पुरुपका वैभव वास्तवमें उसके पूर्वजन्मके पुण्यका फल है । इसी प्रकार पुण्यात्मा पुरुषका दुःख उसके पूर्वजन्मके पापकर्मका परिणाम है ऐसा आपको समझना चाहिये । यह भी निश्चित है कि, भविष्य में दुष्ट पुरुषको दुर्गति और सज्जनकी उत्तम स्थिति होगी ही । बाहर से दीखनेवाले सुख दुःखको देखकर कर्मफल और परलोकसे इन्कार करनेका साहस न करना चाहिये ।
जैन लोग आगम-प्रमाणको मानते है और परलोककी पुष्टिमें उसका उपयोग भी करते हैं। " शुभः पुण्यस्य " " अशुभः पापस्य " अच्छे कर्मका फल भी अच्छा और बुरे कर्मका फल भी बुरा ही होगा, इस जिनवचनमें किसीको तनिक भी डांका न करनी चाहिये । अदृष्टके विषयमें आनुमानिक प्रमाण भी यथेष्ट मिल सकते है । एक गुणवती स्त्रीके एक साथ दो पुत्रों का जन्म होता है। समय चीतने पर इन दोनों भाइयोंकि बल विद्या आदिमें महदन्तर देखा जाता है। अदृटको न मानें तो बतलाइये इस विलक्षणताका आप क्या स्पष्टीकरण करेंगे
जैन मतानुसार अदृष्ट पुद्गलघटित है । अर्थात दूसरे जन्ममें आत्मा किस प्रकारका शरीर धारण करेगा वह उसके पूर्वजन्मार्जित तत्संश्लिष्ट कर्मपरमाणुओं से निर्दिष्ट होता है। आत्मा अष्टाधीन है। उसके पैरोंमें कर्मपुद्गल रूपी जंजीरें पड़ी है। नैयायिक अदृष्टको आत्माका विशेष गुण कहते है। सांख्यमतानुसार अदृष्ट प्रकृतिके चिकारके अतिरिक्त और कुछ नहीं है । वौद्ध अदृष्टको वासनास्वभाव
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