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जिनवाणी कदाचित् आप कहें कि जानान्तर द्वारा इस प्रकारका ग्रहण हो सकता है, तो इसमें 'अनवस्था दोष' आ जाता है, क्यों कि वही ज्ञानान्तर ज्ञानत्व विशेषणके ग्रहण विना संभव नहीं है। प्रकट ही यह सिद्धान्त अनवस्था दोषसे दूषित है। जब तक आप ज्ञानके साथ आत्माकी अभिन्नताको न मानें तब तक " मै ज्ञानवान हूं" यह प्रत्यय आपको नहीं होगा। यही कारण है कि जन दर्शन न्यायदर्शनकथित । आत्माके जडत्वसे इन्कार करता है।
नैयायियोंका दूसरा सिद्धान्त यह है कि "आत्मा कूटस्थ नित्य है।" अर्थात् आत्मा सदैव अपरिवर्तित है । जैन आत्माको परिणामी कहकर इस मतका खण्डन करते है। वे युक्तिपूर्वक अपने सिद्धान्तकी स्थापना करते है: " ज्ञानोत्पत्तिके पहिले आत्माकी जो अवस्था थी वही अवस्था ज्ञानोत्पत्तिके समय भी रहे तो फिर उसे पदार्थका ज्ञान किस प्रकार हो सकता है ? " सदैव अपरिवर्तित रूपमें रहनेको ही आप कूटस्थभाव कहते है । ज्ञानोत्पत्तिके पहिले आत्मा अप्रमाता है, परन्तु ज्ञानोत्पत्तिके समय वह प्रमाता है-पदार्थ-परिच्छेदक है। इस प्रकार आत्मामें एक प्रकारका परिवर्तन तो होता ही है। जब आप परिवर्तन मानते है तो फिर आत्माका कूटस्थभाव कहां रहा ? ।
जैन आत्माको "स्वदेहपरिमाण" कहकर नैयायिकोंके इस सिद्धान्तका खंडन करते हैं कि आत्मा सर्वव्यापक है। जैन कहते है कि, आत्माको सर्वगत माननेके बाद उसके वैविध्यको माननेकी आवश्यकता ही कहां रहती है ? विविध मनके साथके संयोग विविध प्रकारके आत्माका अनुमान