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________________ जीव १२१ कराते हैं । पर यदि आत्मा सर्वगत व्यापक पदार्थ हो तो जिस प्रकार एक ही सर्वगत व्यापक आकाशके साथ विविध घटादिका संयोग होता है उसी प्रकार एक ही आत्माके साथ विविध मनोंका संयोग हो सकता है। आत्माको सर्वव्यापक माननेसे इस प्रकार युगपत् विविध शरीर और इन्द्रियाठिका संयोग भी उसके साथ प्रतिपादित हो सकता है । इस प्रकार विविध आत्मा माननेकी आवश्यकता नहीं रहती। यदि आप कहें कि, एक आत्माके साथ विविध शरीरादिका युगपत् संयोग होना असंभव है, क्यों कि आत्मामें परस्परविरोधी सुखदुःखादि भाव उत्पन्न नहीं होते, तो इसके उत्तरमें कहा जा सकता है कि इस युक्तिसे आकाशमें एक ही साथ विविध भेरियोंका समवाय भी असंभव माना जायगा, क्यों कि सब मेरियोक शब्दादि परस्पर विरोधी होनेके कारण एक भी शब्द सुनाई न देगा । यदि आप कहें कि प्रत्येक शब्दका कारण मिन्न भिन्न है इस लिये प्रत्येक शब्द परस्परविरोधी होनेपर भी सुनाई देता है। यही कारण है कि आकाश एक होने पर भी उसमें विविध भेरियोंका युगपत् समवाय हो सकता है । इसके उत्तरमें कहा जा सकता है कि प्रत्येक सुख-दुःखका कारण पृथक् पृथक् होता है, जिससे सुखदुःखादि परस्पर भिन्न होते हुवे भी उनका युगपत् अनुभव होता है । इस प्रकार एक ही आत्माके साथ अनेक गरीरादिका युगपत् संयोग होना सम्भव हो जाता है। यदि आप कहें कि विरुद्ध धर्मके अध्यासके कारण आत्माकी विविधता माननी पड़ती है, तो फिर आकाशकी विविधता क्यों नहीं मानते ? . यदि आप कहें कि, आकाग है तो एक, तथापि वह बहुतसे
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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