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________________ जीव ११९ घट पटादि अचेतन हैं, उसे "मै ज्ञाता हूं, ज्ञानवान हूं" यह प्रतीति नहीं होती । यदि आत्मा अचेतन होता तो घटपटादिको भी ऐसी प्रतीति हो सकती थी । जैनाचार्योंकी युक्ति ठीक ठीक समझमें आने योग्य है । आत्मा जड़स्वभाववाला होता तो अर्थपरिच्छेद सर्वथा अशक्य हो जाता। नैयायिक थोड़ा और आगे बढकर एक दूसरी युक्ति देते हैं । वे कहते हैं कि " मैं ज्ञानवान हूं" ऐसा हमें जो प्रतीत होता है उससे सिद्ध होता है कि आत्मा और ज्ञान पृथक् पृथक् है - दोनों एक नहीं हैं। किसीको प्रतीत हो कि “मै धनवान हूं" तो इससे हम आत्मा और धनकी अभिन्नता नहीं मान लेते । जैनाचार्य उत्तर देते है कि, इस प्रत्ययसे आत्मा और ज्ञान अभिन्न सिद्ध होते हैं | आत्मा जडस्वभाव हो तो यह प्रतीति कदापि नहीं हो सकती कि " मैं ज्ञानवान हूं"। यदि आप कहे कि आत्मा जडस्वभावी होते हुवे भी ज्ञानवान है तो फिर आप स्वयं ही अपने सिद्धान्तका खण्डन करते है । 'नागृहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिः ' यदि ज्ञानरूप विशेषण गृहीत न हुवा हो तो आत्मारूप विशेष्यमें "भै ज्ञानवान हूं" यह बुद्धि कैसे हो सकती है ? अब यदि आप कहें कि आत्मा और ज्ञान, दोनों ही का ग्रहण होता है, तो दूसरा प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि इस प्रकारका ग्रहण किस प्रकार हो सकता है' विशेषणभूत ज्ञानद्वारा इस प्रकारका ग्रहण संभव ही नहीं है, क्यों कि ज्ञान स्वयं अपने ही से पहिचाना जाय यह बात आपके अपने ही न्यायमतके विरुद्ध है । " नागृहींतविशेषणा विशेष्ये बुद्धि" को तो आप स्वयं भी मानते हैं ।
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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