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जिनवाणी
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चायने भी चुन चुनकर इस विज्ञानवादके दोष बतलाये हैं ।
बौद्धोंके अनात्मवादके संबन्धमें जैनाचार्य कहते है कि यदि जीव जैसी कोई वस्तु न मानो तो फिर स्मृतिका होना असम्भव हो जायगा । सर्वथा पृथक् हो जानेवाले विज्ञानसमूहमें एकके अनुभवकी स्मृति दूसरेको कैसे हो सकती है ? यदि ऐसा ही बनता हो तो फिर एक व्यक्तिका अनुभव अन्यकी स्मृतिका विषय होना चाहिये । परन्तु ऐसा नहीं देखा जाता ।
बौद्ध चैत्यवंदनामें विश्वास रखते है । जैनाचार्य कहते है कि, “आपके धर्ममें चैत्यवन्दना एक पुण्यकार्य है, और उससे उत्तम फलकी प्राप्ति होती है; परन्तु जो चैत्यवन्दन करता है वह दूसरे ही क्षणमें नहीं रहता – बदल जाता है । तब फिर चैत्यवंदनका सुफल किसे मिलेगा ? इससे ऐसा होगा कि करेगा कोई और फल मिलेगा किसी औरको; अथवा करेगा कोई और उसका फल किसीको भी न मिलेगा। आपका सिद्धान्त “ अकृताभ्यागम" और " कृतप्रणाश” नामक दो बड़े दोषोंसे दूषित है । बिना किये भोगना पड़े और कृतकर्म निष्फल हो जाय, ये दोष कुछ ऐसे वैसे नहीं है । आपका अनात्मवाद तो वस्तुतः कर्मफलवादके मूलमें ही कुठाराघात करता
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युक्तिपूर्वक बौद्धोंका विरोध करनेमें जैन दर्शन और वेदान्त दर्शन एकमत हैं, परन्तु जैन और वेदान्तके मौलिक द्धान्तमें भेद है । वेदान्त दर्शन जीवात्माओकी परामार्थिक सत्ता स्वीकार करनेसे सर्वथा इन्कार करता है। उसका मत है कि आत्मा एक और अद्वितीय है