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________________ जीव १११ जैनोंसे बौद्ध दार्शनिक इस बातमें सहमत हैं कि, चैतन्य जड़ पदार्थका विकार नहीं है । परन्तु बौद्ध आत्मा नामक एक सत् पदार्थके अस्तित्वको नहीं मानते। वे कहते हैं कि प्रतिक्षण विज्ञानका उदय और लय होता रहता है। इस विज्ञानके मूलमें कोई स्थायी सत् पदार्थ नहीं है । एक क्षण जो विज्ञान संस्काररूप होता है, दूसर क्षण वही विज्ञानका कारणरूप होता है; फिर वह कार्यरूप विज्ञान अपने वाक्के विज्ञानका कारण हो जाता है । इस प्रकार परस्परभिन्न क्षणिक विज्ञानसमूहमें परंपरासे कार्यकारणभाव रहता है। बौद्व इसे विज्ञानप्रवाह कहते हैं, विज्ञानसंतान भी कहते हैं । इस प्रवाहरूप विज्ञानसंतानके अतिरिक्त आत्मा या जीव आदि अन्य कोई वस्तु नहीं है । Hume, Mill आदि वर्तमान युगके Sensationist दार्शनिक भी बौद्धोंके समान विज्ञानवादी अथवा निरात्मवादी हैं । उन्होने एक चैतन्यधारी और अविच्छिनताकी कल्पना की है। बौद्ध दर्शनके विज्ञानप्रवाहसे इसका मेल ठीक बैठता है । इस निरात्मवादके विरुद्ध पहिली आपत्ति तो यही है कि, क्षणिक विज्ञानसमूहके मूलमें कोई नियामक - सत्पदार्थ नहीं है । दो पदार्थोंको जोड़नेवाली कोई वस्तु न हो तो ये दोनों अलग हो जाय, यह बात समझमें आने योग्य है । अत एव संतान अथवा विज्ञानप्रवाह असंभव हो जाता है। आत्मा न हो तो अणिक विज्ञानसमूहमें क्रम, व्यवस्था या शृंखला कैसे रह सकती है ? यदि शृंखला न हो तो स्मृति (पहिलेके अनुभवका पुनः प्रवोध) और प्रत्यभिज्ञा ( यह वही है ) कैसे हो सकती है ? वेदान्त दर्शनने भी इस विज्ञानवादका खंडन किया है। जैना
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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