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जिनवाणी जानेके बाद अकेला शरीर पड़ा रहता है, वह तो आपके सिद्धान्तानुसार सर्वथा नोरोग-स्फूर्तियुक्त होना चाहिये, परन्तु ऐसा नहीं होता। इसीसे हम कहते है कि जड़ शरीर कदापि चैतन्यका कारण नहीं हो सकता। । शरीरको चैतन्यका सहकारी कारण कहा जाय तो भी ठीक नहीं है, क्यो कि चैतन्यका एक अशरीरी-अजड़-उपादान तो आपको मानना ही पड़ेगा। परन्तु ऐसा मानने पर आपका सिद्धान्त मिथ्या हो जायगा। यह बात आपको अनुकूल न होगी।
यदि शरीरको ही चैतन्यका उपादानकारण माना जाय तो भी काम नहीं चल सकता, क्यों कि ऐसा मान ले तो जब कभी गरीरमें विकार उत्पन्न हो तब चैतन्यमें भी वैसा ही विकार आ जाना चाहिये, पर ऐसा अनुभव नहीं होता । इसके अतिरिक्त आनन्द, भय, शोक, निद्रा, मूर्छा जैसे विकार जब चैतन्यमें आते हैं तब शरीरमें भी उनके अनुरूप विकार दिखने चाहिये, परन्तु ऐसा होते हुवे नहीं देखा जाता। ___ एक और आपत्ति भी होगी। प्राणी जितना अधिक मोटा हो, बुद्धि भी उसकी उतनी ही अधिक होनी चाहिये परन्तु साधारणतः इसके विपरीत ही देखा जाता है। शरीर यदि चैतन्यका उपादानकारण हो तो ऐसा क्यों नहीं होता ? छोटे-पतले शरीरवाले प्राणी अधिक बुद्धिशाली देखे जाते हैं। इसके अतिरिक्त चैतन्यप्रवाहमें प्राणीको " अहं " ज्ञान रहता है अर्थात् सदैव यह ज्ञान रहता है कि “ मैं हूं" । यह ज्ञान शरीरमेंसे उत्पन्न नहीं होता। यदि ऐसा होता तो “ मेरा गरीर" यह प्रयोग कैसे संभव होता ? जिसे “ मै" कहते हैं बृह शरीरसे भिन्न और प्रत्यक्ष रूपसे सिद्ध हो सकनेवाली वस्तु है।