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जीव
परिणमित होता है। चार्वाकोंका यह सिद्धान्त है ।
वर्तमान युगके कतिपय जड़वादी कुछ अंशोंमें इसी सिद्धान्तकी दुन्दुभि बना रहे हैं । वे कहते हैं कि जिस प्रकार यकृतमेंसे एक प्रकारका रस निकलता है उसी प्रकार मस्तकमेंसे चैतन्य उत्पन्न होता है। अत एव जड़ पदार्थसे मित्र आत्मा नामक पदार्थको - किसी स्वतन्त्र पदार्थको सत्ता माननेकी आवश्यकता नहीं है।
इन सबको उत्तर देना चाहें तो कह सकते हैं कि, धान्य, गुड़ आदिमेंसे जो परिणमित होता है वह वस्तुतः जड़ ही है । कृ जो रस निकलता है वह भी जड़ है। ऐसा नियम है कि जड़मेंसे जड़ पदार्थ' ही उत्पन्न हो सकता है । मस्तकमेंसे भी ऐसा ही जड़ पदार्थ. उत्पन्न होना संभव है । जड़मेंसे जड़से सर्वथा भिन्न पदार्थ कैसे पैदा हो सकता है ? चैतन्य जडका परिणाम कैसे हो सकता है ? इस तर्क पर विचार करके, कुछ आधुनिक अध्यात्मवादी दार्शनिक जड़वार्दका त्याग करके चैतन्यकी स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करनेकी ओर आकर्षित हुवे हैं । बौद्ध जड़से चैतन्यकी उत्पत्ति नहीं मानते, उन्होंने विज्ञानकी क्षणिक सत्ता मानकर जड़वादको पीछे हटा दिया है । जैनोंने जीवमें चैतन्यगुण स्वीकार करके अध्यात्मवादकी नीवं खूब मज़बूत कर दी है। जैनोंने चार्वाकों और चौद्धोंको प्रबल उत्तर दिया है । 'चार्वाक मतके खण्डनमें जैन कहते है कि यदि जड़मेंसे ही चैतन्य उत्पन्न होता हो तो प्राणीको मृत्युके पश्चात चैतन्य क्यो नहीं दोखता ? मृत्युके पश्चात् शरीर तो जैसेका तैसा ही रहता है; उसका कोई अंश कम नहीं हो जाता; मृत्यु होते रोग चला जाता है। उस रोगके
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