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जीवोति हवदि वेदा उपभोगविसे सिदो पह कता । भोत्ता च देहमचो ण हि मूत्तो कम्मसंजुत्तो ॥
-प. स. स.
जिनवाणी
जीव अस्तित्ववाला, चेतन, उपयोगविशिष्ट, प्रभु, कर्ता, भोक्ता, देहमात्र, अमूर्त और कर्मसंयुक्त है ।
श्रीवादिदेवसूरि भी प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कार (७-५६ ) में कहते
हैं कि :
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'चैतन्यस्वरूपः, परिणामी, कर्ता, साक्षाद्भोका, स्वदेद्दपरिमाणः, प्रतिक्षेत्रे विभिन्नः, पौद्गलिकादृष्टवांश्चायम् । "
उपरोक्त वचनो पर विचार करनेसे प्रतीत होता है कि जैन दर्शनानुसार जड़से भिन्न जो जीव है वह सत्य पदार्थ है । वह चेतन, अमूर्त, -संसारी दशामें कर्मवश, कर्ता, भोक्ता, देहप्रमाण और प्रभु इत्यादि लक्षणवाला है ।
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चार्वाक तो जड़से भिन्न पदार्थका अस्तित्व ही नहीं स्वीकार करते। वे पृथ्वी, पानी, वायु और तेज – इन चार पदार्थोंको ही मानते है और कहते है कि इनके सिवाय अन्य एक भी एकान्त सत् पदार्थ नहीं है। उनका मत है कि जगतके समस्त पदार्थ इन्हीं चार महाभूतोके संमिश्रणसे उत्पन्न होते हैं। मनुष्यादि जीव चेतन है, इससे तो वे इन्कार नहीं कर सकते; परन्तु चैतन्य है, इस लिये आत्माके मान कोई पदार्थ होना चाहिये, इस बातको वे स्वीकार नहीं करते । जिस प्रकार धान्य और गुड़ आदि पदार्थ सड़ते सड़ते सुरारूपमें परिणमित हो जाते है उसी प्रकार उपरोक्त चार महाभूतोसे ही चैतन्य