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________________ जीव जइसे भिन्न पदार्थीको जैन दार्शनिक 'जीव' कहते हैं। योग और सांख्य दर्शनमें जिसे 'पुरुष' कहा गया है; न्याय, वैशेषिक और वेदान्त मतसे जो आत्मा है, वह जैन दर्शनकी दृष्टिसे जीव है। इतना होने पर भी इनके बीचका भेद मामूली नहीं है। सांख्य तथा. योगदर्शन-प्रतिपादित 'पुरुष के साथ जैन दर्शन-स्वीकृत जीवका भेद है। न्याय और वैशेषि कके आत्मा तथा जैन दर्शनके जीवके वीचमें भी. भेद है। वेदान्तियोंका आत्मा और जैनोंका जीव भी एक नहीं है। चार्वाक्रमत-सम्मत निरात्मवादको भी जैन नहीं मानते। जैन दार्शनिकोंने वौद्धोंके विज्ञानप्रवाह-वादका भी खण्डन किया है। तब फिर जैन दर्शन-सम्मत जीवका लक्षण क्या है । द्रव्यसंग्रह और पंचास्तिकायमें उसकी व्याख्या इस प्रकारकी है: जीवो उवोगमओ अमुत्तो कत्ता सदेहपरिमाणो। भोत्ता संसारत्यो सिद्धो सो विस्सलोहगई ॥२१॥ -द्रव्यसग्रह। जीव उपयोगमय, अमूर्त, कर्ता, अपने देहके समान परिमाणवाला, भोक्ता, संसारस्थ, सिद्ध और स्वभावसे ऊर्चगतिवाला है।
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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