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जीव
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अद्वैत ब्रह्म है; असंख्य जीवात्मा, एक अद्वितीय - एकमात्र सत्य अद्वैत ब्रह्मके परिणाम अथवा विवर्तमात्र है । ब्रह्माद्वैतवादा कहते है कि, समस्त जीवोंमें यही एक परमात्मा विराजमान है; एक आत्माके अतिरिक्त अन्य कोई आत्मा, दूसरा कोई सत्पदार्थ नहीं है। Spinoza और Parmenudes के मतके साथ वेदांतमतकी कुछ समानता है।
वेदांतके इस अद्वैत सिद्धान्तको जैन नहीं मानते। जैन दर्शनके मतानुसार आत्मा अथवा जीवोंकी संख्या अनन्त है एवं प्रत्येक जीव एक दूसरेसे स्वतन्त्र है । जीव स्वतन्त्र न होते, मूलतः सब जीव एक ही होते तो एक जीवके सुखसे सब जीव सुखी हो जाते, एकके दुःखसे सब दुःखी होते, एकके बन्धन से सब बन्धनग्रस्त रहते और एककी मुक्तिसे सब मुक्त हो जाते। जीवोंकी भिन्न भिन्न अवस्था देखकर सांख्यदर्शनने आत्माके अद्वैतवादका परिहार किया और आत्माको विविधता मानी। जैन दर्शनने “प्रतिक्षेत्रे भिन्न " कहकर
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सांख्यसम्मत जीवकी विविधता स्वीकार की है ।
अद्वैतवादके विषयमें जैन दार्शनिक कहते है कि सत्ता, चैतन्य, आनन्द आदि कितने ही गुण ऐसे है कि जो सभी आत्मा अथवा जीवोंमें होते है। इस गुणसामान्यकी दृष्टिसे आत्मा या जीव एक है ऐसा कहे तो कह सकते है । समस्त जीवोमें इस प्रकारकी गुणसामान्यता होती ही है। वेदांतका अद्वैतवाद इस रीति से कुछ अंशोंमें ठीक है, परन्तु प्रत्येक जीवमें विशिष्टता होती है इस बातका इन्कार नहीं किया जा सकता । इस विशिष्टता के कारण ही एक जीवको दूसरे से भिन्न कहना पड़ता है। विशिष्टता न होती तो एक जीवके मोक्ष जाने पर सब
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