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________________ १०४ जिनवाणी अथवा,ये तीन प्रकारको भ्रान्तियां हैं। इन समारोपोंसे रहित-भ्रान्तिरहित-ज्ञानका नाम सम्यग्ज्ञान है। सम्यक्चारित्र राग-द्वेषरहित होकर पवित्र आचरणका अनुष्ठान करनेका नाम सम्यक्चारित्र है। उपसंहार जैन विज्ञानका वर्णन करते समय, यहां और भी बहुतसी बातोंका उल्लेख करना आवश्यक है । परन्तु श्रोताओंको या वाचकोंको अरुचि म हो जाय-वे उकता न जाय -इस उद्देश्यसे मैने यथागस्य संक्षेप ही किया है। नहीं तो जैन काव्य, जैन कथा, जैन साहित्य, जैन नीतिग्रन्थ, जैन ज्योतिप, जैन चिकित्साशास्त्र आदिमें इतनी बाते, इतने सिद्धान्त और इतने ऐतिहासिक उपकरण हैं कि उनका उचित विवेचन किये बिना साधारण जनता उन्हे समझ नहीं सकती। मैंने यहां जैन विज्ञानकी जो रूपरेखा दिखलाई है वह तो बिल्कुल साधारण है; इसे तो जैन दर्शनका केवल हाडपिंजर कहा जाय तो भी अनुचित न होगा। 1. प्रमाणाभास क्या है ? वादविचार कैसा होता है ? फलपरीक्षाकी पद्धति क्या है ? इत्यादि बहुतसी वाते जैन दर्शनमें है। मैंने यहां उनको तो स्पर्श तक नहीं किया, तथापि मुझे विश्वास है कि सुज्ञ पुरुष इतने संक्षिप्त विवेचनसे ही इतना तो अवश्य समझ लेंगे कि आधुनिक विज्ञानके अधिकांश मूल सूत्र जैन विज्ञानमें है। जैन विद्या भारतवर्षकी विद्या है। इसके पुनरुद्धारका उत्तरदायित्व भारतवर्ष पर है। भारतकी लुप्त विद्या और सभ्यताका पुनरुद्धार करनेमें
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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