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________________ 'जिनवाणी जो कर्म जीवके सम्यक्त्व और चारित्रगुणका घात करता है, जीवको अश्रद्धा और लोभादिमें फंसा देता है उसका नाम मोहनीय कर्म है। वेदनीय कर्मके प्रतापसे जीवको सुख-दुःखरूप सामग्री प्राप्त होती है। आयुकर्मके परिणामस्वरूप जीव मनुष्यादिके आयुष्यको प्राप्त करता है । जीवकी गति, जाति, शरीर आदिके साथ नामकर्मका संबंध रहता है। उच्च या नीच गोत्र मिलनेका आधार गोत्रकर्म है । अन्तरायकर्मसे दानादि सत्कार्यमें भी विघ्न पड़ता है। इस अष्टविध कर्भके अन्य बहुतसे भेद है, जिन्हे विस्तारमयसे छोड़ दिया गया है। बंध स्वभावतः मुक्त जीव उपरोक्त कथनानुसार कर्मपुद्गलके आश्रवसे बन्धनग्रस्त रहता है। अजीव कर्मपुद्गलके साथ जीवके मिल जानेका नाम बंध है। संवर सांसारिक मोहमें पड़े हुवे जीवमें कर्मका आश्रव जिसके द्वारा रुक जाता है उसका नाम संवर है । संवर बंधनग्रस्त जीवको मुक्तिमार्ग पर ले जाता है । जैन शास्त्रोंमें कथित तीन गुप्ति, पांच समिति, दशविध यतिधर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस प्रकारके परिषहका जय, पांच प्रकारका चारित्र और बारह प्रकारका तप संवर साधनेके साधन है । इन सबके लक्षणोंका वर्णन करनेका यह स्थान नहीं है । निर्जरा कर्मके एकदेशीय क्षयका नाम निर्जरा है। उसके दो भेद है'एक सविपाक और दूसरा अविपाक । निर्दिष्ट फलभोगके पश्चात्
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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